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जैन कला
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प्रदर्शन हम उन गुफाओं में पाते हैं । किन्तु चित्रकला की आधारभूत सामग्री भी उसकी प्रकृति अनुसार ही बड़ी ललित और कोमल होती है । भित्ति का लेप और उसपर कलाकार के हाथों की स्याही की रेखाएं तथा रंगों का विन्यास काल की तथा धूप, वर्षा, पवन आदि प्राकृतिक शक्तियों कीकरालता को उतना नहीं सह सकती जितना वस्तु व मूर्तिकला की पाषाणमयी कृतियाँ | इस कारण गुप्त काल से पूर्व के चित्रकलात्मक उदाहरण या तो नष्ट हो गये या बचे तो ऐसी जीर्णशीर्ण अवस्था में जिससे उनके मौलिक स्वरूप का स्पष्ट ज्ञान प्राप्त करना असम्भव हो गया है ।
प्राचीनतम जैन साहित्य में चित्रकला के अनेक उल्लेख प्राप्त होते हैं । छठे जैन श्रुतांग नायाधम्म-कहाओ में धारणी देवी के शयानागार का सुन्दर वर्णन है जिसका छत लताओं, पुष्पवल्लियों तथा उत्तम जाति के चित्रों से अलंकृत था ( ना० क० १९ ) । इसी श्रुतांग में मल्लदिन्न राजकुमार द्वारा अपने प्रमदवन में चित्रसभा बनवाने का वर्णन है । उसने चित्रकारों की श्रेणी को बुलवाया और उनसे कहा कि मेरे लिए एक चित्र सभा बनाओ और उसे हाव, भाव, विलास, विभ्रमों से सुसज्जित करो । चित्रकार श्रेणी ने इस बात को स्वीकार कर लिया और अपने-अपने घर जाकर तूलिकाएं और वर्ण ( रंग ) लाकर वे चित्र-रचना में प्रवृत्त हो गये । उन्होंने भित्तियों का विभाजन किया, भूमि को लेपादि से सजाया और फिर उक्त प्रकार के चित्र बनाने लगे । उनमें से एक चित्रकार को ऐसी सिद्धि प्राप्त थी कि किसी भी द्विपद व चतुष्पद प्राणी का एक अंग मात्र देखकर उसकी पूरी रूपाकृति निर्माण कर सकता था । उसने राजकुमारी महिल के चरणांगुष्ट को पर्दे की ओट से देखकर उसकी यथावत् सर्वांगाकृति चित्रित कर दी ( ना० क०८, ७८ ) । इसी श्रुतांग में अन्यत्र (१३, ६६) मणिकार श्रेष्ठि नंद द्वारा राजगृह के उद्यान में एक चित्र सभा बनवाने का उल्लेख है, जिसमें सैकड़ों स्तम्भ थे, व नाना प्रकार के काष्ठकर्म (लकड़ी की कारीगरी), पुस्तकमं ( चूने सिमेंट की कारीगरी ), चित्रकर्म ( रंगों की कारीगरी ) लेप्यकर्म (मिट्टी की आकृतियाँ) तथा नाना द्रव्यों को गूंथकर, वेष्टितकर, भरकर व जोड़कर बनाई हुई विविध आकृतियां निर्माण कराई गई थीं । बृहत् कल्पसूत्र भाष्य (२, ५, २६२ ) में एक गणिका का कथानक है, जो ६४ कलाओं में प्रवीण थी । उसने अपनी चित्रसभा में नाना प्रकार के, नाना जातियों व व्यवसायों के पुरुषों के चित्र लिखाये थे । जो कोई उसके पास आता उसे वह अपनी उस चित्र सभा के चित्र दिखलाती, और उसकी प्रतिक्रियाओं पर से उसकी रुचि व स्वभाव को जानकार उसके साथ तदनुसार व्यवहार करती थी । श्रावश्यक टीका के एक पद्य में चित्रकार का
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