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जैन मन्दिर का है। जिन्होंने आबू पर विमलवसही बनवाया है; और दूसरा राजा कुमारपाल (१२ वीं शती) का बनवाया हुआ है । विशालता व कलात्मक सौन्दर्य की दृष्टि से विमलवसही ट्रंक का आविनाथ मंदिर सबसे महत्वपूर्ण है । यह मंदिर सन् १५३० में बना है; किन्तु इसके भी प्रमाण मिलते हैं कि उससे पूर्व वहां ई० सन् ९६० का बना हुआ एक मंदिर था। यहां की १०वीं शती की निर्मित पुण्डरीक की प्रतिमा सौन्दर्य में अतिश्रेष्ठ मानी गई है। चौथा उल्लेखनीय चतुमुख मन्दिर हैं जो सन् १६१८ का बना हुआ है । इसकी चारों दिशाओं में प्रवेश-द्वार है । पूर्वद्वार रंगमंडप के सम्मुख है, तथा तीन अन्य द्वारों के सम्मुख भी मुखमंडप बने हुए हैं । ये सभी मंडप दुतल्ले हैं और ऊपर के तल में मुखमंडपिकाओं से युक्त वातायन भी हैं । उपर्युक्त व अन्य मंदिर, गर्भगृह, मंडपों व देवकुलिकाओं की रचना, शिल्प व सौन्दर्य में देलवाड़ा विमलवसही व लूणवसही का ही हीनाधिक मात्रा में अनुकरण करते हैं।
सौराष्ट्र का दूसरा महान् तीर्थक्षेत्र है। गिरनार । इस पर्वत का प्राचीन नाम ऊर्जयन्त व रैवतक गिरि पाया जाता है, जिसके नीचे बसे हुए नगर का नाम गिरिनगर रहा होगा, जिसके नाम से अब स्वयं पर्वत ही गिरिनार (गिरिनगर) कहलाने लगा । जूनागढ़ से इस पर्वत की ओर जाने वाले मार्ग पर ही वह इतिहास-प्रसिद्ध विशोल शिला मिलती है जिस परं अशोक, रुद्रदामन् और स्कन्दगुप्त सम्राटों के शिखालेख खुदे हुए हैं, और इस प्रकार जिस पर लगभग १००० वर्ष का इतिहास लिखा हुआ है । जूनागढ़ के समीप ही बाबाप्यारा मठ के पास वह जैन गुफा है, जो पूर्वोक्त प्रकार से पहली दूसरी शती की धरसेनाचार्य को चन्द्रगुफा प्रतीत होती है। इस प्रकार यह स्थान ऐतिहासिक व धार्मिक दोनों दृष्टियों से अतिप्राचीन व महत्वपूर्ण सिद्ध होता है । गिरिनगर पर्वत का जैनधर्म से इतिहासातीत काल से सम्बन्ध इसलिए पाया जाता है, क्योंकि यहाँ पर ही २२ वें तीर्थकर नेमिनाथ ने तपस्या की थी और निर्वाण प्राप्त किया था। इस तीर्थ का सर्वप्राचीन उल्लेख समन्तभद्रकृत वृहत्स्वयंभूस्तोत्र (५ वीं शती) में मिलता है जहाँ नेमिनाथ की स्तुति में कहा गया है कि
ककुवं भुवः खचर-योषिदुषित-शिखरैरलंकृतः मेघ-पटल-परिवीत-तटस्तव लक्षणानि लिखितानि वज्रिणा। बहतीति तीर्थमृषिभिश्च सततमभिगम्यतेऽद्य च
प्रीति-वितत-हवयैः परितो भृशमर्जयन्त इति विश्रुतोऽचलः ॥१२८।। इस स्तुति के अनुसार समन्तभद्र के समय में ऊर्जयन्त (गिरनार) पर्वत पर नेमिनाथ तीर्थकर की मूर्ति या चरणचिह्न प्रतिष्ठित थे, शिखर पर विद्याघरी अम्बिका की मूर्ति भी विराजमान थी, और ऋषिमुनि वहां की निरंतर
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