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________________ ३४० जैन कला तीर्थ-यात्रा किया करते थे। वर्तमान में यहां का सबसे प्रसिद्ध, विशाल व सुन्दर मंदिर नेमिनाथ का है। रैवतक गिरि-कल्प के अनुसार इसका निर्माण चालुक्य नरेश जयसिंह के दंडाधिप सज्जन ने खंगार राज्य पर विजय प्राप्त करने के पश्चात् संवत् ११८५ में बनवाया था। इसके शिखर पर सुवर्ण का आमलक मालव देश के मुखमंडन मावड़ ने और पद्या (सोपान-पथ) का निर्माण कुमारपाल नरेन्द्र द्वारा नियुक्त सौराष्ट्र के दंडाधिप किसी श्रीमाल कुल के व्यक्ति ने सम्वत् १२२० में कराया था। मंदिर के मूलनायक की प्रतिमा आदितः लेपमय थी, और उसका लेप कालानुसार गलित हो गया था, तब काश्मीर से तीर्थयात्रा पर आये हुए अजित और रतन नामक दो भाइयों ने उसके स्थान पर दूसरी प्रतिमा स्थापित की। मंदिर के प्रांगण में कोई सत्तर देवकुलिकाएं हैं। इनके बीच मंदिर बना हुआ है जिसका मंडप बड़ी सुन्दरता से अलंकृत है । मुख्य मंदिर के विमान के विशाल शिखर के आसपास अनेक छोटे-छोटे शिखरों का पुज है, जिससे उसका दृश्य बहुत भव्य दिखाई देता हैं । इस काल की जैन वास्तु-कला का यह एक वैशिष्ट्य है । यहां का दूसरा उल्लेखनीय मंदिर हैं वस्तुपाल द्वारा निर्मापित मल्लिनाथ तीर्थंकर का । इस मंदिर का विन्यास एक विशिष्ट प्रकार का है। रंगमंडप के प्रवेश-द्वार की दिशा को छोड़कर शेष तीन दिशाओं में उससे सटे हुए तीन मंदिर हैं। मध्य का मंदिर मूलनायक मल्लिनाथ का है। आजू-बाजू के दोनों मंदिर रचना में स्तम्भयुक्त मण्डपों के सदृश हैं और उनमें ठोस पाषाण की बड़ी कारीगरी दिखाई देती है । उत्तर दिशा का मंदिर चौकोर अधिष्ठान पर मेरु की रचना से युक्त है, तथा दक्षिण दिशा का मंदिर सम्मेदशिखर की प्रतिकृति है। यह प्राचीन और शैली व कला की दृष्टि से महत्वपूर्ण उपलभ्य जैन मंदिरों का अति संक्षिप्त और स्फुट परिचय मात्र है । यथार्थतः तो समस्त देश हिमालय से दक्षिणी समुद्र तक व सौराष्ट्र से बंगाल तक जैन मंदिरों व उनके भग्नावशेषों से भरा विषय हुआ है । जहाँ अब जैन मंदिर नहीं हैं, या उनके खंडहर मात्र अवशिष्ट हैं, वहां के विषय में जेम्स फर्गुसन साहब का अभिमत ध्यान देने योग्य है । उनका कथन है "गंगाप्रदेश अथवा जहां भी मुसलमान संख्या में बसे वहां प्राचीन जैन मंदिरों के पाने की आशा करना व्यर्थ है। उन लोगों ने अपने धर्म के जोश में मंदिरों को नष्ट-भ्रष्ट कर डाला है, तथा जिन सुन्दर स्तम्भों, तोरणों आदि को नष्ट नहीं किया, उनका बड़े चाव से अपनी मस्जिदों आदि के निर्माण में उपयोग कर लिया । अजमेर, दिल्ली, कन्नौज, धार व अहमदाबाद की विशाल मस्जिदें यथार्थतः जैन-मंदिरों की ही परिवर्तित निर्मितियां हैं।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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