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________________ ३३८ जैन कला तल में भी यही रचना है । इस चौमुखी मंदिर का विन्यास प्रायः उसी प्रकार का है, जैसा कि पहाड़पुर के महाविहार का पाया जाता है। राजपूताने की एक और सुन्दर व कलापूर्ण निर्मिति है चित्तौड़ का कोतिस्तम्भ । इसके निर्माता व निर्माण काल के सम्बन्ध में बड़ा मतभेद रहा । किंतु हाल में ही नांदगांव के दिगम्बर जैन मंदिर की धातुमयी प्रतिमा पर सं० १५४१ ई० (सन् १४८४) का एक लेख मिला है जिसके अनुसार मेदपाट देश के चित्रकूट नगर में इस कीर्तिस्तम्भ का निर्माण चन्द्रप्रभ जिनेन्द्र के चैत्यालय के सम्मुख जीजाशाह के पुत्र पूर्णसिंह ने करवाया था। इससे स्पष्ट है कि स्तम्भ की रचना १५ वीं शती में ई० सन् १४८४ से पूर्व ही हो चुकी थी। जीजाशाह के पुत्र पूर्णसिंह बघेरवाल जाति के थे । और उन्होंने कारंजा (जिला अकोलाबरार) के मूलसंघ, सेनगण, पुष्करगच्छ के भट्टारक सोमसेन के उपदेश से इस स्तम्भ के अतिरिक्त १०८ शिखरबद्ध मंदिरों का उद्धार कराया, जिनबिंब बनवाये और प्रतिष्ठाएं कराई; अनेक श्रुतभंडारों की स्थापना कराई, और सवा लाख बंदी छुड़वाये, ऐसा भी उक्त लेख में उल्लेख है । लेख से स्पष्ट है कि यह स्तम्भ एक जैन मंदिर के सम्मुख बनवाया गया था, जिससे वह मानस्तम्भ प्रतीत होता है । यह स्तम्भ लगभग ७६ फुट ऊंचा है, और उसका नीचे का व्यास ३१ फुट तथा ऊपर का १५ फुट है। इसमें सात तल्ले हैं, जिनके ऊपर गंधकुटी रूप छतरी बनी हुई है। यह छतरी एक बार विद्युत से आहत होकर ध्वस्त हो गई थी, किन्तु उसे महाराणा फतहसिंह ने लगभग अस्सी हजार के व्यय से पुनः पूर्ववत् ही निर्माण करा दिया । इस शिखर की कुटी में अवश्य ही चतुर्मुखी तीर्थकर मूर्ति रही होगी। स्तम्भ के समस्त तलों के चारों भागों पर आदिनाथ व अन्य तीर्थंकरों की नग्न मूर्तियां विराजमान हैं, जिससे आदितः यह स्तम्भ आदि तीर्थंकर का ही स्मारक प्रतीत होता हैं । इस कीर्तिस्तम्भ की बाह्य निर्मिति अलंकृतियों से भरी हुई हैं। चित्तौड़ के किले पर कुछ इसी प्रकार का एक दूसरा कीर्ति-स्तम्भ भी हैं जिसमें ९ तल हैं, और जो हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियों से अलंकृत हैं । यह पूर्वोक्त स्तम्भ से बहुत पीछे उसी के अनुकरण रूप महाराणा कुम्भ का बनवाया हुआ है। जैन तीर्थों में सौराष्ट्र प्रदेश के शत्रुजय (पालीताणा) पर्वत पर जितने जैन मंदिर हैं, उतने अन्यत्र कहीं नहीं। शत्रंजय माहात्म्य के अनुसार यहां प्रथम तीर्थकर के काल से ही जैन मंदिरों का निर्माण होता आया है। वर्तमान में वहां पाये जाने वाले मंदिरों में सबसे प्राचीन उन्हीं विमलशाह (११ वीं शती) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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