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________________ जैन मन्दिर खरतर वसही भी कहलाता है । कुछ मूर्तियों पर के लेखों से इस मंदिर का निर्माणकाल वि० सं० १५१५ के लगभग प्रतीत होता है । मंदिर तीन तल्ला है, और प्रत्येक तल पर पार्श्वनाथ की चोमुखी प्रतिमा विराजमान है । पांचवा महावीर मंदिर देलवाड़ा से पूर्वोत्तर दिशा में कोई साढ़े तीन मील पर है । इसका निर्माण भी १५ वीं शती में हुआ था । वर्तमान में इसके मूलनायक भ० आदिनाथ हैं, जिनके पार्श्वों में पार्श्वनाथ और शान्तिनाथ तीर्थंकरों की मूर्तियां हैं, किन्तु मंदिर की ख्याति महावीर के नाम से ही है । अनुमानतः बीच में कभी मूलनायक का स्थानान्तरण किया गया होगा । वह मंदिर एक परकोटे के मध्य में स्थित है और गर्भगृह के सम्मुख शिखरयुक्त गूढ़मंडप भी है । उसके सम्मुख खुला चबूतरा है, जिसपर या तो नवचौकी और सभामंडप बनाये ही नहीं जा सके, अथवा बनकर कभी विध्वस्त हो गये । ३३७ देलवाड़ा का विग जैन मंदिर वहां से अचलगढ़ की ओर जाने वाले मार्ग के मुख पर ही है । इस मंदिर में एक शिलालेख है, जिसके अनुसार वि० सं० १४९४ में गोविंद संघाधिपति यहां मूलसंघ, बलात्कार गण, सरस्वती गच्छ के भट्टारक पद्मनंदी के शिष्य भट्टारक शुभचन्द्र सहित तीर्थयात्रा को आये, और उन्होंने उस मंदिर का निर्माण कराया। उस समय श्राबू के राजा राजधरदेवड़ा चूड़ा का राज्य था । राजपूताने का एक अन्य उल्लेखनीय जैन मंदिर जोधपुर राज्यान्तर्गत गोड़वाड़ जिले में राणकपुर का है जो सन् १४३९ में बनवाया गया था । यह विशाल चतुर्मुखी मंदिर ४०,००० वर्ग फुट भूमि पर बना हुआ है, और उसमें २६ मंडप हैं, जिनके स्तम्भों की संख्या ४२० है । इन समस्त स्तम्भों की बनावट व शिल्प पृथक-पृथक है, और अपनी-अपनी विशेषता रखती है । मंदिर का आकार चतुर्मुखी है । बीच में मुख्य मंदिर है जिसकी चारों दिशाओं में पुनः चार मंदिर । इनमें शिखरों के अतिरिक्त मंडपों के भी और उनके आसपास ८६ देवकुलिकाओं के भी अपने - अपने शिखर हैं, जिनकी आकृति दूर से ही अत्यन्त प्रभावशाली दिखाई देती है । शिखरों का सौन्दर्य और सन्तुलन बहुत चित्ताकर्षक है और यही बात उसकी अन्तरंग कलाकृतियों के विषय में भी पाई जाती है । सर्वत्र वैचित्र्य और सांमजस्य का अद्भुत संयोग दिखाई देता है । दर्शक मंदिर के भीतर जाकर मंडप, उनके स्तम्भों व खुले प्रांगणों में से जाता हुआ प्रकाश और छाया के अद्भुत प्रभावों से चमत्कृत हो जाता है । मुख्य गर्भगृह स्वस्तिकाकार हैं और उसके चारों ओर चार द्वार हैं । यहाँ आदिनाथ की श्वेत संगमरमर की चतुर्मुखी मूर्ति प्रतिष्ठित है । यह दुतल्ला है, और दूसरे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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