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________________ जैन धर्म का उद्गम पौर विकास नमि की यही अनासक्त वृत्ति मिथिला राजवंश में जनक तक पाई जाती है । प्रतीत होता है कि जनक के कुल की इसी आध्यात्मिक परम्परा के कारण वह वंश तथा उमका समस्त प्रदेश ही विदेह (देह से निर्मीह, जीवन्मुक्त) कहलाया और उनकी अहिंसात्मक प्रवृत्ति के कारण ही उनका धनूष प्रत्यंचा-हीन रूप में उनके क्षत्रियत्व का प्रतीकमात्र सुरक्षित रहा । सम्भवतः यही वह जीर्ण धनुष था, जिसे राम ने चढ़ाया और तोड़ डाला। इस प्रसंग में जो व्रात्यों के 'ज्याहृद' शस्त्र के संबंध में ऊपर कह पाये हैं, वह बात भी ध्यान देने योग्य है । तीर्थंकर नेमिनाथ तत्पश्चात् महाभारत काल में बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ हुए। इनकी वंश-परम्परा इस प्रकार बतलाई गई है-शौरीपुर के यादव वंशी राजा अंधकवृष्णी के ज्येष्ठ पुत्र हुए समुद्र विजय, जिनसे नेमिनाथ उत्पन्न हुए। तथा सबसे छोटे पुत्र थे वसुदेव, जिनसे उत्पन्न हुए वासुदेव कृष्ण । इस प्रकार नेमिनाथ और कृष्ण आपस में चचेरे भाई थे । जरासंघ के प्रातंक से त्रस्त होकर यादव' शौरीपुर को छोड़कर द्वारका में जा बसे । नेमिनाथ का विवाह-संबंध गिरिनगर (जूनागढ़) के राजा उग्रसेन की कन्या राजुलमती से निश्चित हुआ। किन्तु जब नेमिनाथ की बारात कन्या के घर पहुंची और वहां उन्होंने उन पशुओं को घिरे देखा, जो अतिथियों के भोजन के लिए मारे जाने वाले थे, तब उनका हृदय करुणा से व्याकुल हो उठा और वे इस हिंसामयी गार्हस्थ प्रवृत्ति से विरक्त होकर, विवाह का विचार छोड़, गिरनार पर्वत पर जा चढ़े और तपस्या में प्रवृत्त हो गये । उन्होंने केवल-ज्ञान प्राप्त कर उसी श्रमण परम्परा को पुष्ट किया । नेमिनाथ की इस परम्परा को विशेष देन प्रतीत होती है'अहिंसा को धार्मिक वृत्ति का मूल मानकर उसे सैद्धांतिक रूप देना।' महाभारत का काल ई. पूर्व १००० के लगभग माना जाता है। अतएव ऐतिहासिक दष्टि से यही काल ने मिनाथ तीर्थकर का मानना उचित प्रतीत होता है । यहां प्रसंगवश यह भी ध्यान देने योग्य है कि महाभारत के शांतिपर्व में जो भगवान् तीर्थवित् और उनके द्वारा दिये गये उपदेश का वृत्तान्त मिलता है, वह जैन तीर्थंकर द्वारा उपदिष्ट धर्म के समरूप है । तीर्थकर पार्श्वनाथ तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ का जन्म बनारस के राजा अश्वसेन और उनकी रानी वर्मला (वामा) देवी से हुआ था। उन्होंने तीस वर्ष की अवस्था में गृह त्याग कर सम्मेदशिखर पर्वत पर तपस्या की । यह पर्वत आजतक भी पारस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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