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तीर्थंकर नमि
कोप-भाजन हुए हैं। जैन धर्म के मुख्य पांच अहिंसादि नियमों को व्रत कहा है । उन्हें ग्रहण करने वाले श्रावक देश विरत या अणुव्रती और मुनी महाव्रती कहलाते हैं । जो विधिवत् व्रत ग्रहण नहीं करते, तथापि धर्म में श्रद्धा रखते हैं, वे अविरत सम्यग्दृष्टि कहे जाते हैं । इसी प्रकार के व्रतधारी व्रात्य कहे गये प्रतीत होते हैं, क्योंकि वे हिंसात्मक यज्ञ विधियों के नियम से त्यागी होते हैं । इसीलिये उपनिषदों में कहीं कहीं उनकी बड़ी-प्रशंसा भी पाई जाती है, जैसे प्रश्नोपनिषद् में कहा गया है-व्रात्यस्त्वं प्रारणक ऋषिरत्ता विश्वस्य सत्पतिः' (२, ११) । शांकर भाष्य में व्रात्य का अर्थ 'स्वभावत एव शुद्ध इत्यभिप्रायः' किया गया है । इस प्रकार श्रमण साधनाओं की परम्परा हमें नाना प्रकार के स्पष्ट व अस्पष्ट उल्लेखों द्वारा ऋग्वेद आदि समस्त वैदिक साहित्य में दृष्टिगोचर होती है।
तीर्थकर नमि
__ वेदकालीन आदि तीर्थंकर ऋषभनाथ के पश्चात् जैन पुराण परम्परा में जो अन्य तेईस तीर्थंकरों के नाम या जीवन-वृत्त मिलते हैं, उनमें बहुतों के तुलनात्मक अध्ययन के साधनों का अभाव है। तथापि अन्तिम चार तीर्थंकरों की ऐतिहासिक सत्ता के थोड़े बहुत प्रमाण यहां उल्लेखनीय हैं। इक्कीसवें तीर्थकर नमिनाथ थे। नमि मिथिला के राजा थे, और उन्हें हिन्दू पुराण में भी जनक के पूर्वज माना गया है । नमि की प्रव्रज्या का एक सुन्दर वर्णन हमें उत्तराध्ययन सूत्र के नौवें अध्याय में मिलता है, और यहां उन्हीं के द्वारा वे वाक्य कहे गये हैं, जो वैदिक व बौद्ध परंपरा के संस्कृत व पालि साहित्य में गूंजते हुए पाये जाते हैं, तथा जो भारतीय अध्यात्म संबंधी निष्काम कर्म व अनासक्ति भावना के प्रकाशन के लिये सर्वोत्कृष्ट वचन रूप से जहां तहां उद्धृत किये जाते हैं । वे वचन हैं
सुहं वसामो जीवानो जेसि मों पत्थि किंचरण । मिहिलाए डझमाणीए ण मे डज्झई किंचण॥
(उत्त. ६-१४) सुसुखं वत जीवाम येसं नो नत्थि किंचनं । मिथिलाये दहमानय न मे किंचि अवयहथ ।
(पालि-महाजनक जातक) मिथिलायां प्रदीप्तायां न मे किञ्चन बहयते ।
(म. मा. शान्तिपर्व)
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