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तीर्थंकर पार्श्वनाथ
नाथ पर्वत नाम से सुविख्यात है । उन्होंने केवलज्ञान प्राप्त कर सत्तर वर्ष तक श्रमण धर्म का उपदेश और प्रचार किया । जैन पुराणानुसार उनका निर्वाण भागवान महावीर निर्वाण से २५० वर्ष पूर्व और तदनुसार ई० पूर्व ५२७ + २५० = ७७७ वर्ष में हुआ था । पार्श्वनाथ का श्रमण परम्परा पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा जिसके परिणाम स्वरूप आज तक भी जैन समाज प्रायः पारसनाथ के अनुनाइयों की मानी जाती है । ऋषभनाथ की सर्वस्व त्याग रूप आकिञ्चन मुनिवृत्ति, नमि की निरीहता व नेमिनाथ की हिंसा को उन्होंने अपने चातुर्याम रूप सामयिक धर्म में व्यवस्थित किया । चातुर्याम का उल्लेख निर्ग्रन्थों के सम्बन्ध में पालि ग्रन्थों में भी मिलता है और जैन आगमों में भी । किन्तु इनमें चार याम क्या थे, इसके संबंध में मतभेद पाया जाता है । जैन आगमानुसार पार्श्वनोथ के चार याम इस प्रकार थे - ( १ ) सर्वप्राणातिक्रम से विरमण, (२) सर्व मृषावाद से विरमण, (३) सर्व अदत्तादान से विरमण, (४) सर्व बहिस्थादान से विरमण । पार्श्वनाथ का चातुर्यामरूप सामायिक धर्म महावीर से पूर्व ही सुप्रचलित था, यह दिग०, श्वे० परम्परा के अतिरिक्त बौद्ध पालि साहित्य गत उल्लेखों से भलीभांति सिद्ध हो जाता है । मूलाचार (७, ३६-३८) में स्पष्ट उल्लेख है कि महावीर से पूर्व के तीर्थंकरों ने सामायिक संयम का उपदेश दिया था, तथा केवल अराव होने पर ही प्रतिक्रमण करना आवश्यक बतलाया था । किन्तु महावीर ने सामायिक धर्म के स्थान पर छेदोपस्थापना संयम निर्धारित किया और प्रतिक्रमण नियम से करने का उपदेश दिया ( मू० १२६ - १३३ ) । ठीक यही बात भगवती (२०, ८, ६७५, २५, ७, ७८५), उत्तराध्ययन आदि आगमों में तथा तत्वार्थ सूत्र (C, १८ ) की सिद्धसेनीय की टीका में पाई जाती है । बौद्ध ग्रंथ गु० निकाय चतुक्कनिपात ( वग्ग ५) और उसकी अट्ठकथा में उल्लेख है कि गौतम बुद्ध का चाचा 'बप्प शाक्य' निर्ग्रन्थ श्रावक था । पार्श्वापत्यों तथा निर्ग्रन्थ श्रावकों के इसी प्रकार के और भी अनेक उल्लेख मिलते हैं, जिनसे निर्ग्रन्थ धर्म की सत्ता बुद्ध से पूर्व भलीभांति सिद्ध हो जाती है ।
एक समय था जब पार्श्वनाथ तथा उनसे पूर्व के जैन तीर्थंकरों व जैनधर्म की उस काल में सत्ता को पाश्चात्य विद्वान स्वीकार नहीं करते थे । किन्तु जब जर्मन विद्वान् हर्मन याकोबी ने जैन व बौद्ध प्राचीन साहित्य के सूक्ष्म अध्ययन द्वारा महावीर से पूर्व निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय के अस्तित्व को सिद्ध किया, तब से विद्वान् पार्श्वनाथ की ऐतिहासिकता को स्वीकार करने लगे हैं, और उनके महावीर निर्वाण से २५० वर्ष पूर्व निर्वाण प्राप्ति की जैन परम्परा को भी मान देने लगे हैं । बोद्ध ग्रन्थों में जो निर्ग्रन्थों के चातुर्याम का उल्लेख मिलता है।
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