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________________ जैन गुफाएं ३१५ जाने पर वह दुतल्ला सभागृह मिलता है जो इन्द्रसभा के नाम से प्रसिद्ध हैं। दोनों तल्लों में प्रचुर चित्रकारी बनी हुई हैं । नीचे का भाग कुछ अपूर्ण सा रहा प्रतीत होता है, जिससे यह बात भी सिद्ध होती है कि इन गुफाओं का उत्कीर्णन ऊपर से नीचे की ओर किया जाता था। ऊपर की शाला १२ सुखचित स्तम्भों से अलंकृत हैं । शाला के दोनों ओर भगवान् महावीर की विशाल प्रतिमाएं हैं, और पार्श्व कक्ष में इन्द्र व हाथी की मूर्तियां बनी हुई हैं। इन्द्रसभा की एक बाहिरी दीवाल पर पार्श्वनाथ की तपस्या व कमठ द्वारा उन पर किये गये उपसर्ग का बहुत सुन्दर व सजीव उत्कीर्णन किया गया है। पार्श्वनाथ कायोत्सर्ग मुद्रा में ध्यानस्थ हैं, ऊपर सप्तफणी नाग की छाया है, व एक नागिनी छत्र धारण किये हैं । दो अन्य नागिनी भक्ति, आश्चर्य व दुःख की मुद्रा में दिखाई देती हैं। एक ओर भैंसे पर सवार असुर रौद्र मुद्रा में शस्त्रास्त्रों सहित आक्रमण कर रहा हैं, व दूसरी ओर सिंह पर सवार कमठ की रुद्र मूर्ति आघात करने के लिये उद्यत हैं। नीचे की ओर एक स्त्री व पुरुष भक्तिपूर्वक हाथ जोड़े खड़े हैं । दक्षिण की दीवाल पर लताओं से लिपटी बाहुबलि की प्रतिमा उत्कीर्ण है। ये सब तथा अन्य शोभापूर्ण आकृतियां अत्यन्त कलापूर्ण हैं। अनुमानतः इन्द्रसभा की रचना तीर्थंकर के जन्म कल्याणकोत्सव की स्मृति में हुई हैं, जबकि इन्द्र अपना ऐरावत हाथी लेकर भगवान् का अभिषेक करने जाता हैं। इन्द्रसभा की रचना के संबंध में पर्सी ब्राउन साहब ने कहा है कि "इसकी रचना ऐसी सर्वांगपूर्ण, तथा शिल्पकला की चातुरी इतनी उत्कृष्ट हैं कि जितनी एलोरा के अन्य किसी मंदिर में नहीं पाई जाती । भित्तियों पर आकृतियों का उत्कीर्णन ऐसा सुन्दर तथा स्तम्भों का विन्यास ऐसे कौशल से किया गया है कि उसका अन्यत्र कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलता।" इन्द्रसभा के समीप ही जगन्नाथ सभा नामक चैत्यालय हैं, जिसका विन्यास इन्द्रसभा के सद्दश ही हैं, यद्यपि प्रमाण में उससे छोटा हैं । द्वार का तोरण कलापूर्ण हैं । चेत्यालय में सिंहासन पर महावीर तीर्थंकर की पद्मासन मूर्ति हैं। दीवालों व स्तम्भों पर प्रचुरता से नाना प्रकार की सुन्दर मूर्तियां बनी हुई है। किंतु अपने रूप में सौन्दर्यपूर्ण होने पर भी संतुलन व सौष्ठव की दृष्टि से जो उत्कर्ष इन्द्रसभा की रचना में दिखाई देता है, वह यहां व अन्यत्र कहीं भी नहीं हैं । इन गुफाओं का निर्माणकाल ८०० ई० के लगभग माना जाता है। बस, इस उत्कर्ष पर पहुंचकर केवल जन-परम्परा में ही नहीं, किन्तु भारतीय परम्परा में गुफा निर्माण कला का विकास समाप्त हो जाता है, और स्वतंत्र मंदिर निर्माण की कला उसका स्थान ग्रहण करती है। नवमी शती का एक शिलामंदिर दक्षिण त्रावणकोर में त्रिवेन्द्रमनगरकोइल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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