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________________ । ३०४ जैन कला की आकृतियां बनी हैं । स्तूप की बाजू में तीन आराधकों की आकृतियाँ बनी हैं । ऊपर की ओर उड़ती हुई दो आकृतियां संभवतः चारण मुनियों की हैं। वे नग्न हैं, किन्तु उनके बाये हाथ में वस्त्रखंड जैसी वस्तु एवं कमंडलु दिखाई देते हैं, तथा दाहिना हाथ मस्तक पर नमस्कार मुद्रा में हैं । एक और प्राकृति युगल सुपर्ण पक्षियों की हैं, जिनके पुच्छ व नख स्पष्ट दिखाई देते हैं । दांयी प्रोर का सुपर्ण एक पुष्पगुच्छ व बांयी ओर का पुष्पमाला लिये हुए हैं। स्तूप की गुम्बज के दोनों ओर विलासपूर्ण रीति से झुकी हुई नारी आकृतियां सम्भवतः यक्षिणियों की हैं । घेरे के नीचे सीढ़ियों के दोनों ओर एक-एक आला हैं। दक्षिण बाजू के आले में एक बालक सहित पुरुषाकृति व दूसरी ओर स्त्री-आकृति दिखाई देती है । स्तूप की गुम्मट पर छह पंक्तियों में एक प्राकृत का लेख है, जिसमें अर्हन्त वर्द्धमान को नमस्कार के पश्चात् कहा गया है कि 'श्रमण-श्राविका आर्या-लवणोशोभिका नामक गणिका की पुत्री श्रमण-श्राविका वासु-गणिका ने जिन मंदिर में अरहंत की पूजा के लिये अपनी माता, भगिनी, तथा दुहिता पुत्र सहित निर्गन्थों के अरहंत आयतन में अरहंत का देवकुल (देवालय), आयाग सभा, प्रपा (प्याज) तथा शिलापट (प्रस्तुत आयागपट) प्रतिष्ठित कराये।" यह शिलापट २ फुट X १ इंचx १४ फुट तथा अक्षरों की आकृति व चित्रकारी द्वारा अपने को कुषाणकालीन (प्र० द्वि० शती ई०) सिद्ध करता है। __ इस शिलापट से भी प्राचीन एक दूसरा आयागपट भी मिला हैं, जिसका ऊपरी भाग टूट गया है, तथापि तोरण, घेरा, सोपानपथ एवं स्तूप के दोनों ओर यक्षिणियों की मूर्तियां इसमें पूर्वोक्त शिलापट से भी अधिक सुष्पष्ट हैं। इस पर भी लेख है जिसमें अरहंतों को नमस्कार के पश्चात् कहा गया है कि 'फगुयश नर्तक की भार्या शिवयशा ने अरहंत-पूजा के लिये यह यागपट बनवाया' । वि० स्मिथ के अनुसार इस लेख के अक्षरों की आकृति ई० पू० १५० के लगभग शुग-कालीन भरहुत स्तूप के तोरण पर अंकित धनभूति के लेख से कुछ अधिक प्राचीन प्रतीत होती है । बुलर ने भी उन्हें कनिष्क के काल से प्राचीन स्वीकार किया है । इस प्रकार लगभग २०० ई० पू० का यह आयागपट सिद्ध कर रहा है कि स्तूपों का प्रकार जैन परम्परा में उससे , बहुत प्राचीन है । साथ ही, जो कोई जन स्तूप सुरक्षित अवस्था में नहीं पाये जाते, उसके अनेक कारण है । एक तो यह कि गुफा-चैत्यों और मन्दिरों के अधिक प्रचार के साथ-साथ स्तूपों का नया निर्माण बन्द हो गया, व प्राचीन स्तूपों की सुरक्षा की ओर विशेष ध्यान नहीं दिया गया। दूसरे, उपर्युक्त स्तूप के आकार व निर्माणकला के वर्णन से स्पष्ट हो जाती है कि बौद्ध व जैन स्तूपों की कला प्रायः एक सी ही थी। यथार्थतः यह कला श्रमण संस्कृति की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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