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________________ मथुरा का स्तूप ३०५ समान धारा थी । इस कारण अनेक जैन स्तूप भ्रान्तिवश बौद्ध स्तूप ही मान लिये गये । इन बातों के स्पष्ट उदाहरण भी उपस्थित किये जा सकते हैं । मथुरा के पास जिस स्थान पर उक्त प्राचीन जैन स्तूप था, वह वर्तमान में कंकाली टीला कहलाता है । इसका कारण यह है कि जैनियों की उपेक्षा से, अथवा किन्हीं बाह्य विध्वंसक आघातों से जब उस स्थान के स्तूप व मन्दिर नष्ट हो गये, और उस स्थान ने एक टीले का रूप धारण कर लिया, तब मन्दिर का एक स्तंभ उसके ऊपर स्थापित करके वह कंकालीदेवी के नाम से पूजा जाने लगा। यहां के स्तूप का जो आकार-प्रकार उपर्युक्त 'वासु' के श्रयागपट्ट से प्रगट होता है, ठीक उसी प्रकार का स्तूप का नीवभाग तक्षशिला के समीप 'सरकॉप' नामक स्थान पर पाया गया है। इस स्तूप के सोपान - पथ के दोनों पावों में उसी प्रकार के दो आले रहे हैं, जेसे उक्त आयागपट में दिखाई देते हैं । इसी कारण पुरातत्व विभाग के डायरेक्टर सर जानमार्शल ने उसे जैन स्तूप कहा हैं, और उसे बौद्ध धर्म से सब प्रकार असंबद्ध बतलाया है । तो भी पीछे के लेखक उसे बौद्ध स्तूप ही कहते हैं, और इसका कारण वे यह बतलाते हैं कि उस स्थान से जैनधर्म का कभी कोई ऐतिहासिक संबंध नहीं पाया जाता । किन्तु वे यह भूल जाते हैं कि तक्षशिला से जैनधर्म का बड़ा प्राचीन संबंध रहा है। जैन पुराणों के अनुसार प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव ने यहाँ अपने पुत्र बाहुबली की राजधानी स्थापित की थी। उन्होंने यहां विहार भी किया था, और उनकी स्मृति में यहां धर्मचक्र भी स्थापित किया गया था। यही नहीं, किन्तु प्रति प्राचीन काल से सातवीं शताब्दी तक पश्चिमोत्तर भारत में अफगानिस्तान तक जैनधर्म के प्रचार के प्रमाण मिलते हैं । हुएनच्वांग ने अपने यात्रा वर्णन में लिखा है कि उसके समय में "हुसीना (गजनी ) व हजारा ( या होसला ) में बहुत से तीर्थंक थे, जो क्ष्णदेव ( शिश्न या नग्न देव ) की पूजा करते थे, अपने मन को वश में रखते थे, व शरीर की पर्वाह नहीं करते थे ।" इस वर्णन से उन देवों के जैन तीर्थंकर और उनके अनुयाइयों के जैन मुनि व श्रावक होने में कोई संदेह प्रतीत नहीं होता । पालि ग्रन्थों में निग्गंठ नातपुत्त (महावीर तीर्थंकर) को एक तीर्थंक ही कहा गया है 'सरकॉप' स्तूप को जैन स्तूप स्वीकार करने चाहिये । । अतएव तक्षशिला के समीप में कोई आपत्ति नहीं होनी मथुरा से प्राप्त अन्य एक आयागपट के मध्य में छत्र चमर सहित जिन मूर्ति विराजमान है व उसके आसपास त्रिरत्न, कलश, मत्स्य युगल, हस्ती आदि मंगल द्रव्य व अलंकारिक चित्रण है । प्रयागपट चित्रित पाषाणपट्ट होते थे और उनकी पूजा की जाती थी । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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