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________________ २८८ जैन कला गोलाकार व चौकोर होने से मुट्ठी में रखी जा सके वह मुष्टि, लकड़ी के पट्टे पर लिखी हुई पुस्तक संपुट-फलक, तथा छोटे-छोटे पन्नों वाली मोटी या लम्बे किन्तु संकरे ताड़पत्र जैसे पन्नोंवाली पुस्तक छेदपाटी कही गई है। (२) गरिणत शास्त्र का विकास जैन परम्परा में करणानुयोग के अन्तर्गत खूब हुआ है। जहाँ इन ७२ कलाओं का संक्षेप से उल्लेख है, वहां प्रायः उन्हें लेखादिक व गणित-प्रधान कहकर सूचित किया गया है। इससे गणित की महत्ता सिद्ध होती है । (३) रूपगत से तात्पर्य मूर्तिकला व चित्रकला से हैं, जिनका निरूपण आगे किया जायगा। (४-६) नत्य, गीत, बाद्य, स्वरगत, पुष्करगत, और समताल का विषय संगीत हैं। इन कलाओं के संबंध में जैन शास्त्रों व पुराणों में बहुत कुछ वर्णन किया गया है । और उन्हें बालक-बालिकाओं की शिक्षा का आवश्यक अंग बतलाया गया है । कथा-कहानियों में प्रायः वीणावाद्य में प्रवीण ता के आधार पर ही युवक-युवतियों के विवाह-संबंध के उल्लेख मिलते हैं । (१०-१३) द्यूत, जनवाद, पोक्खच्चं व अष्टापद ये द्यूतक्रीड़ा के प्रकार हैं। (१४) दगमट्टिया,-उदकमृत्ति का पानी से मिट्टी को सानकर घर, मूर्ति आदि के आकार क्रीड़ा, सजावब व निर्माण हेतु बनाने की कला है। (१५-१६) अन्मविधि व पानविधि भिन्न-भिन्न प्रकार के खाद्य, स्वाद्य, लेह्य व पेय पदार्थ बनाने की कलाएं हैं । (१७) वस्त्रनिधि नाना प्रकार के वस्त्र बुनने व सीने की एवं (१८) शयनविधि अनेक प्रकार के खाट-पलंग बुनने व शैया की साज-सजावट करने की कला है (१६-२३) आर्या, प्रहेलिका, मागषिका व गाथा और इलोक इन्हीं नामों के छंदों व काव्य-रीतियों में रचना करने की कलाएं हैं। (२४) गंधयुक्ति नाना प्रकार के सुगंधी. द्रव्यों के रासायनिक संयोगों से नये-नये सुगंधी द्रव्य निर्माण करने की कला है। (२५) मधुसिक्थ अलक्तक, लाक्षारस या माहुर (महावर) को कहते हैं। इस द्रव्य से पैर रंगने की कला का नाम ही मधुमिक्थ है। (२६-२७) आभरणविधि व तरुणी प्रतिकर्म भूषण व अलंकार धारण करने व स्त्रियों की साज-सज्जा की कलाएं त्रि० प्र० (४, ३६१-६४) में पुरुष के १६ व स्त्री के १४ आभरणों की विकल्प रूप में दो सूचियां पाई जाती हैं, जो इस प्रकार हैं :- . प्रथम सूची: १ कुंडल, २ अंगद, ३ हार, ४ मुकुट, ५ केयूर, ६ भालपट्ट, ७ कटक, ८ पालम्ब, ६ सूत्र, १० नुपुर, ११ मुद्रिका-युगल, १२ मेखला, १३ प्रैवेयक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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