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________________ कला के भेद-प्रभेद २८९ (कंठा), १४ कर्णपूर, १५ खड्ग और १६ छुरी । दूसरी वैकल्पिक सूची में १३ आभरणों के नाम समान हैं किन्तु केयूर, भालपट्ट, कर्णपूर, ये तीन नाम नहीं हैं, तथा किरीट, अर्द्धाहार व चूड़ामणि, ये तीन नाम नये हैं सम्भव है केयूर और अंगद ये आभूषण एक ही या एक समान ही रहे हों, और उसी प्रकार भालपट्ट व चूड़ामणि भी। अर्द्धाहार का समावेश हा रों में ही किया जा सकता है। किरीट एक प्रकार का मुकुट ही है। इस प्रकार दूसरी सूची में कोई नया आभरण-विशेष नहीं रहता किन्तु प्रथम सूची के कर्णपूर नामक आभरण का समावेश नहीं पाया जाता । उक्त १६ अलंकारों में खड्ग और छुरी को छोड़कर शेष १४ स्त्रियों के आभूषण माने गये हैं। भूषण, आभरण व अलंकारों की एक विशाल सूची हमें अंगविज्जा (पृ० ३५५-५७) में मिलती है, जिसमें ३५० नाम पाये जाते हैं। यह सूची केवल आभरणों की ही नहीं हैं, किन्तु उसमें एक तो धातुओं की अपेक्षा भी अलग-अलग नाम गिनाये गये हैं जैसे सुवर्णमय, रूप्यमय, ताम्रमय आदि; अथवा शंखमय, दंतमय, बालमय, काष्ठमय, पुष्पमय, पत्रमय आदि । दूसरे उसमें भिन्न-भिन्न अंगों की अपेक्षा आमरण-नामों की पुनरावृत्ति हुई है, जैसे शिराभरण, कर्णाभरण, अंगुल्याभरण, कटिआभरण, प्रादि । और तीसरे उसमें अंजन, चूर्ण, अलक्तक, गंधवर्ण आदि तथा नाना प्रकार के सुगन्धी चूर्ण व तेल, परिधान, उत्तरासंग आदि वस्त्रों व छत्र पताकादि शोभा-सामग्री का भी संग्रह किया गया है। तथापि शुद्ध अलंकारों की संख्या कोई १०० से अधिक ही पाई जाती है । इस प्रन्थ में नाना प्रकार के पात्रों, भोज्य व पेय पदार्थों, वस्त्रों व आच्छादनों एवं शयनसनों की सुविस्तृत सूचियाँ अलग-अलग भी पाई जाती हैं, जिनसे उपर्युक्त नाना कलाओं और विशेषत: अन्नविधि (१५), पानविधि (१६), वस्त्रविधि (१७), शयन विधि (१८), गंधयुक्ति (२४), मधुसिक्थ (२५), आभरणविधि (२६), तरुणीप्रतिकर्म (२७), पत्रछेद्य तथा कटकछेद्य (७०), इन कलाओं के स्वरुप व उपयोग पर बहुत प्रकाश पड़ता है। स्त्री-लक्षण से चर्म-लक्षण (२८-४१) तक की कलाएं उन-उन स्त्री, मनुष्यों, पशुओं व वस्तुओं के लक्षणों को जानने व गुण-दोष पहचानने की कलाएं हैं । स्त्री पुरुषों के लक्षण सामुद्रिक शास्त्र सम्बन्धी नाना ग्रन्थों तथा हाथी, घोड़ों व बैलों के लक्षण भिन्न-भिन्न ततुतद्विषयक जीवशास्त्रों में विस्तार से वर्णित पाये जाते हैं । चंद्रलक्षण से ग्रहचरित (४२-४५) तक की कलाएं ज्योतिषशास्त्र विषयक हैं और उनमें उन-उन ज्योतिष मण्डलों के ज्ञान की साधना की जाती थी। सौभाग्यकरं से मंत्रगतं (४६-४६) तक की कलाएं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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