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________________ कला के भेद-प्रभेद २८७ प्रसिद्ध चतुर व धूर्त नायक पाये जाते हैं । (देखो मूलदेव कथा उ० सू० टीका ) । लेख के आधार पत्र, वल्कल काष्ठ, दंत, लोह, ताम्र, रजत आदि बतलाये गये हैं, और उन पर लिखने की क्रिया उत्कीर्णन ( अक्षर खोदकर ) स्यूत (सीकर), व्यूत ( बुनकर ), छिन्न (छेदकर), भिन्न ( भेदकर), दग्ध ( जलाकर ), और संक्रान्तित ( ठप्पा लेकर ) इन पद्धतियों से की जाती थी । लिपि के अनेक दोष भी बतलाये गये हैं । जैसे प्रतिकृश, अतिस्थल, विषम, टेढ़ी पंक्ति और भिन्न वर्णों को एक जंसा लिखना ( जैसे घ और ध, भ और म, म और य आदि), व पदच्छेद न करना, आदि । विषय के अनुसार भी लेखों का विभाजन किया गया था । तथा स्वामि भुत्य, पिता-पुत्र, गुरु-शिष्य, पति-पत्नी, शत्रु-मित्र, इत्यादि को पत्र लिखने की भिन्न-भिन्न शैलियां स्थिर की गई थीं । जैन समाज में लेखन प्रणाली का प्रयोग बहुत प्राचीन पाया जाता है । तथापि ड़ेढ़-दो हजार वर्ष से पूर्व के लिखित ग्रन्थों के स्पष्ट उदाहरण प्राप्त न होने का एक बड़ा कारण यह हुआ कि विद्याप्रचार का कार्य प्राचीनकाल में मुनियों द्वारा विशेष रूप से होता था, और जैन मुनि सर्वथा अपरिग्रहीं होने के कारण अपने साथ ग्रन्थ न रखकर स्मृति के सहारे ही चलते थे । अन्तिम तीर्थंकर महावीर के उपदेशों को उनके साक्षात गणधरों ने तत्काल ग्रन्थ रचना का रूप दे दिया था । किन्तु मौर्यकाल में उनके एक अंश का ज्ञान लुप्तप्राय हो गया था, और पाटलिपुत्र को वाचना में बारहवें अंग दृष्टिवाद का संकलन नहीं किया जा सका, क्योंकि उसके एकमात्र ज्ञाता भद्रबाहु उस मुनिसंघ में सम्मिलित नहीं हो सके । वीरनिर्वाण की दसवीं शती में आकर पुनः आगमों की अस्त-व्यस्त अवस्था हो गई थी । अतएव मथुरा में स्कंदिल आचार्य और उसके कुछ पश्चात् बलभी में देवद्विगणि क्षमाश्रमण की अध्यक्षता में आगमों की वाचनाएं की गई । पाटलिपुत्रीय व माथुरीय वाचनाओं के ग्रन्थ तो अब नहीं मिलते, किन्तु वलभी वाचना द्वारा संकलित आगमों की प्रतियां तब से निरन्तर ताड़पत्र और तत्पश्चात् कागजों पर उत्तरोत्तर सुन्दर कलापूर्ण रीति से लिखित मिलती हैं, और वे जैन लिपिकला के इतिहास के लिये बड़ी महत्व - पूर्ण हैं । उपर्युक्त तीनों वाचनाओं का नाम ही यह सूचित करता हैं कि उनमें ग्रन्थ बांचे या पढ़े गये थे । इससे लिखित ग्रन्थों की परम्परा की प्राचीनता सिध्द होती हैं । दशवैकालिक सूत्र की हरिभद्रीय टीका में पांच प्रकार की पुस्तकों का वर्णन मिलता हैं-गंडी, कच्छपी, मुष्टि, संपुष्ट-फलक और छेदपाटी लंबाई-चौड़ाई में समान अर्थात् चौकोर पुस्तक को गंडी, जो पुस्तक बीच में चौड़ी व दोनों बाजुनों में संकरी हो वह कच्छपी, जो केवल चार अंगुल की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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