SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 29
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म का उद्गम और विकास दुधर्युक्तस्य द्रव्रतः सहानस ऋच्छन्ति मा निष्पदो मुद्गलानीम् ।। (ऋग्वेद १०, १०२, ६) जिस सूक्त में यह ऋचा पाई है उसकी प्रस्तावना में निरुक्त के जो 'मुद गलस्य हृता गावः' आदि श्लोक उद्धृत किए गए हैं, उनके अनुसार मुद्गल ऋषि की गौवों को चोर चुरा ले गए थे। उन्हें लौटाने के लिए ऋषि ने केशी वृषभ को अपना सारथी बनाया, जिसके वचन मात्र से वे गौएं आगे को न भागकर पीछे की ओर लौट पड़ीं। प्रस्तुत ऋचा का भाष्य करते हुए सायणाचार्य ने पहले तो वृषभ और केशी का वाच्यार्थ पृथक् बतलाया है। किंतु फिर प्रकारान्तर से उन्होंने कहा है: 'अथवा, अस्य सारथिः सहायभूतः केशी प्रकृष्टकेशो वृषभः अवाव चीत् भ्रशमशब्दयत्' इत्यादि। सायण के इसी अर्थ को तथा निरूक्त के उक्त कथा-प्रसंग को भारतीय दार्शनिक परम्परानुसार ध्यान में रखते हुए प्रस्तुत गाथा का मुझे यह अर्थ प्रतीत होता है मुद्गल ऋषि के सारथी (विद्वान् नेता) केशी वृषभ जो शत्रुओं का विनाश करने के लिए नियुक्त थे, उनकी वाणी निकली, जिसके फल स्वरूप जो मुद्गल ऋषि की गौवें (इन्द्रियां) जुते हुए दुर्धर रथ (शरीर) के साथ दौड़ रही थीं, वे निश्चल होकर मौद्गलानी (मुद्गल की स्वात्मवृत्ति) की अोर लोट पड़ी। तात्पर्य यह कि मुद्गल ऋषि की जो इन्द्रियां पराङ्मुखी थीं, वे उनके योगयुक्त ज्ञानी नेता केशी वृषभ के धर्मोपदेश को सुनकर अन्तर्मुखी हो गई । इसप्रकार केशी और वृषभ या ऋषभ के एकत्व का स्वयं ऋग्वेद से ही पूर्णत: समर्थन हो जाता है। विद्वान् इस एकीकरण पर विचार करें। मैं पहले ही कह चुका हूँ कि वेदों का अर्थ करने में विद्वान् अभी पूर्णतः सफल नहीं हो सके हैं। विशेषतः वेदों की जैसी भारतीय संस्कृति में पदप्रतिष्ठा है, उसकी दृष्टि से तो अभी उनके समझने समझाने में बहुत सुधार की आवश्यकता है। मुझे आशा है कि केशी, वृषभ या ऋषभ तथा वातरशना मुनियों के वेदान्तगत समस्त उल्लेखों के सूक्ष्म अध्ययन से इस विषय के रहस्य को पूर्णत: उद्घाटन हो सकेगा। क्या ऋग्वेद (४, ५८, ३) के 'त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति महादेवो मानाविवेश' का यह अर्थ नहीं हो सकता कि विधा (ज्ञान, दर्शन और चारित्र से) अनुवद्ध वृषभ ने धर्म-घोषणा की और वे एक महान देव के रूप में मयों में प्रविष्ट हुए ? इसी संबंध में ऋग्वेद के शिश्नदेवों (नग्न देवों) वाले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy