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________________ आदि तीर्थकर और वातरशना मुनि १७ उल्लेख भी ध्यान देने योग्य हैं (ऋ. वे ७, २१, ५, १०, ६६, ३) । इस प्रकार ऋग्वेद में उल्लिखित वातरशना मुनियों के निग्रंथ साधुओं तथा उन मुनियों के नायक केशी मुनि का ऋषभ देव के साथ एकीकरण हो जाने से जैनधर्म की प्राचीन परम्परा पर बड़ा महत्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है। वेदों के रचनाकाल के सम्बन्ध में विद्वानों के बीच बहुत मतभेद है। कितने ही विद्वानों ने उन्हें ई० सन् से ५००० वर्ष व उससे भी अधिक पूर्व रचा मया माना है। किन्तु आधुनिक पाश्चात्य भारतीय विद्वानों का बहुमत यह है कि वेदों की रचना उसके वर्तमान रूप में ई० पूर्व सन् १५०० के लगभग हुई होगी। चारों वेदों में ऋग्वेद सबसे प्राचीन माना जाता है । अतएव ऋग्वेद की ऋचाओं में ही वातरशना मुनियों तथा 'केशी ऋषभदेव' का उल्लेख होने से जैन धर्म अपने प्राचीन रूप में ई० पूर्व सन् १५०० में प्रचलित मानना अनुचित न होगा। केशी नाम जैन परम्परा में प्रचलित रहा, इसका प्रमाण यह है कि महावीर के समय में पार्श्व सम्प्रदाय के नेता का नाम केशीकुमार था (उत्तरा. १३) । उक्त वातरशना मुनियों की जो मान्यता व साधनाएं वैदिक ऋचा में भी उल्लिखित हैं, उन पर से हम इस परम्परा को वैदिक परम्परा से स्पष्टतः पृथक रूप से समझ सकते हैं । वैदिक ऋषि वैसे त्यागी और तपस्वी नहीं, जैसे ये वातरशना मुनि । वे ऋषि स्वयं गृहस्थ हैं, यज्ञ सम्बन्धी विधि विधान में आस्था रखते हैं और अपनी इहलौकिक इच्छाओं जैसे पुत्र, धन, धान्य, आदि सम्पत्ति की प्राप्ति के लिए इन्द्रादि देवी-देवताओं का आह्वान करते कराते हैं, तथा इसके उपलक्ष में यजमानों से धन सम्पत्ति का दान स्वीकार करते हैं । किन्तु इसके विपरीत के वातरशना मुनि उक्त क्रियाओं में रत नहीं होते। समस्त गृह द्वार, स्त्री-पुरुष, धन-धान्य आदि परिग्रह, यहाँ तक की वस्त्र का भी परित्याग कर, भिक्षावृत्ति से रहते हैं। शरीर का स्नानादि संस्कार न कर मल धारण किये रहते हैं। मौन वृति से रहते हैं, तथा अन्य देवी देवताओं के आराधन से मुक्त आत्मध्यान में ही अपना कल्याण समझते हैं। स्पष्टतः यह उस श्रमण परम्परा का प्राचीन रूप है, जो आगे चलकर अनेक अवैदिक सम्प्रदायों के रूप में प्रगट हुई और जिनमें से दो अर्थात जैन और बौद्ध सम्प्रदाय आज तक भी विद्यमान हैं । प्राचीन समस्त भारतीय साहित्य, वैविक, बौद्ध व जैन तथा शिलालेखों में भी ब्राह्मण और श्रमण सम्प्रदायों का उल्लेख मिलता है । जैन एवं बौद्ध साधु आजतक भी श्रमण कहलाते हैं। वैदिक परम्परा के धार्मिक गुरु कहलाते थे ऋषि, जिनका वर्णन ऋग्वेद में बारम्बार आया है। किन्तु श्रमण परम्परा के साधुओं की संज्ञा मुनि थी, जिसका उल्लेख ऋग्वेद में केवल उन वातरशना मुनियों के संबंध को छोड़, अन्यत्र कहीं नहीं आया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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