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आदि तीर्थंकर और वातरशना मुनि
अर्थात् ऋषभ भगवान के शरीर मात्र परिग्रह बच रहा था । वे उन्मत्त के समान दिगम्बर वेशधारी, बिखरे हुए केशों सहित श्राहवनीय अग्नि को अपने में धारण करके ब्रह्मावर्त देश से प्रब्रजित हुए। वे जड़, अन्ध, मूक, बधिर, पिशाचोन्माद युक्त जैसे अवधूत वेष में लोगों के बुलाने पर भी मौन वृत्ति धारण किए हुए चुप रहते थे ।सब ओर लटकते हुए अपने कुटिल, जटिल, कपिश केशों के भार सहित अवधूत और मलिन शरीर सहित वे ऐसे दिखाई देते थे, जैसे मानों उन्हें भूत लगा हो ।
यथार्थतः यदि ऋग्वेद के उक्त केशी संबंधी सूक्त को, तथा भागवतपुराण में वर्णित ऋषभदेव के चरित्र को सन्मुख रखकर पढ़ा जाय, तो पुराण वेद के सूक्त का विस्तृत भाष्य किया गया सा प्रतीत होता है । वही वातरशना या गगनपरिधान वृत्ति केश धारण, कपिश वर्ण, मलधारण, मौन, और उन्मादभाव समान रूप से दोनों में वर्णित हैं । ऋषभ भगवान के कुटिल केशों की परम्परा जैन मूर्तिकला में प्राचीनतम काल से आज तक अक्षुण्ण पाई जाती है । यथार्थतः समस्त तीर्थंकरों में केवल ऋषभ की ही मूर्तियों के सिर पर कुटिल केशों का रूप दिखलाया जाता है, और वही उनका प्राचीन विशेष लक्षण भी माना जाता है । इस संबंध में मुझे केशरिया नाथ का स्मरण श्राता है, जो ऋषभनाथ का ही नामान्तर है । केसर, केश और जटा एक ही अर्थ के वाचक हैं 'सटा जटा केसरयो:' । सिंह भी अपने केशों के कारण केसरी कहलाता है । इसप्रकार केशी और केसरी एक ही केशरियानाथ या ऋषभनाथ के वाचक प्रतीत होते हैं । केशरियानाथ पर जो केशर चढ़ाने की विशेष मान्यता प्रचलित है, वह नामसाम्य के कारण उत्पन्न हुई प्रतीत होती हैं। जैन पुराणों में भी ऋषभ की जटाओं का सदैव उल्लेख किया गया है । पद्मपुराण (३,२८८) में वर्णन है, 'वातोद्धता जटास्तस्य रेजुराकुलमूर्तय' और हरिवंशपुराण (६, २०४) में उन्हें कहा है- 'स प्रलम्बजटाभारभ्राजिष्णुः । इस प्रकार ऋग्वेद के केशी और वातरशना मुनि, तथा भागवत पुराण के ऋषभ और वातरशना श्रमण ऋषि एवं केसरियानाथ ऋषभ तीर्थंकर और उनका निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय एक ही सिद्ध होते हैं ।
केशी और ऋषभ के एक ही पुरुषवाची होने के उक्त प्रकार अनुमान करने के पश्चात् हठात् मेरी दृष्टि ऋग्वेद की एक ऐसी ऋचा पर पड़ गई जिसमें वृषभ और केशी का साथ साथ उल्लेख आया है । वह ऋचा इसप्रकार
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ककर्ववे वृषभो युक्त आसोद् अवावचीत् सारथिरस्य केशी
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