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________________ १४ जैन धर्म का उद्गम और विकास व्यवहार को छोड़कर हम मौनवृत्ति से उन्मत्तवत् (उत्कृष्ट आनन्द सहित ) वायु raat (अशरीरी ध्यानवृत्ति) को प्राप्त होते हैं, और तुम साधारण मनुष्य हमारे बाह्य शरीर मात्र को देख पाते हो, हमारे सच्चे आभ्यंतर स्वरूप को नहीं ( ऐसा वे वातरशना मुनि प्रकट करते हैं) । ऋग्वेद में उक्त ऋचाओं के साथ 'केशी' की स्तुति की गई है - hrefग्नं केशी विषं केशो बिर्भात रोदसी । केशी विश्वं स्वदृशे केशीदं ज्योतिरूच्यते ॥ केशी अग्नि, जल तथा स्वर्ग और पृथ्वी को धारण करता है । केशी समस्त विश्व के तत्वों का दर्शन कराता है । केशी ही प्रकाशमान ( ज्ञान - ) ज्योति (केवलज्ञानी) कहलाता है । केशी की यह स्तुति उक्त वातरशना मुनियों के वर्णन आदि में की गई है, जिससे प्रतीत होता है कि केशी वातरशना मुनियों के वर्णन के प्रधान थे । ऋग्वेद के इन केशी व वातरशना मुनियों की साधनाओं का भागवत पुराण में उल्लिखित वातरशना श्रमण ऋषि, उनके अधिनायक ऋषभ और उनकी साधनाओं की तुलना करने योग्य है । ऋग्वेद के वातरशना मुनि और भागवत के 'वातरशना श्रमण ऋषि' एक ही सम्प्रदाय के वाचक हैं, इसमें तो किसी को किसी प्रकार के सन्देह होने का अवकाश नहीं दिखाई देता । केशी का अर्थ केशधारी होता है, जिसका अर्थ सायणाचार्य ने 'केश स्थानीय रश्मियों को धारण करनेवाले' किया है, और उससे सूर्य का अर्थ निकाला है । किन्तु उसकी कोई सार्थकता व संगति वातरशना मुनियों के साथ नहीं बैठती, जिनकी साधनाओं का उस सूक्त में वर्णन है । केशी स्पष्टतः वातशरना मुनियों के अधिनायक ही हो सकते हैं, जिनकी साधना में मलधारणा, मौन वृत्ति और उन्माद भाव का विशेष उल्लेख है । सूक्त में आगे उन्हें ही 'मुनिर्देवस्य देवस्य सौकृत्याय सखा हितः' (ऋ. १०, १३६, ४) अर्थात् देव देवों के मुनि व उपकारी और हितकारी सखा कहा है । वातरशना शब्द में और मल रूपी वसन धारण करने में उनकी नाग्न्य वृत्ति का भी संकेत हैं । इसकी भागवत पुराण में ऋषभ के वर्णन से तुलना कीजिये । "उर्वरित शरीर-मात्र-परिग्रह उन्मत्त इव गगन परिधानः प्रकीर्णकेशः आत्मन्यारोपिताहवनीयो ब्रह्मावर्तात् प्रवब्राज | astन्ध-मूक-बधिर पिशाचोन्मादकवद् अवधूतवेषो अभिमान्यमाणोऽपि जनानां गृहितमौनवृतः तूष्णों बभूव । परागवलम्बमानकुटिल-जटिल - कपिश-केश भूरि-भार: श्रवधूत मलिन - निजशरीरेण गृहगृहीत इवादृश्यत । (भा. पु. ५, ६, २८-३१ ) *****S (ऋग्वेद १०,१३६, १ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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