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________________ आदि तीर्थंकर और वात रशना मुनि की शिक्षा देने के लिए हुआ । किन्तु उक्त वाक्य का यह अर्थ भी संभव है कि यह अवतार रज से उपप्लुत अर्थात् रजोधारण (मल धारण) वृत्ति द्वारा कैवल्य प्राप्ति की शिक्षा देने के लिए हुआ था' । जैन मुनियों के आचार में अस्नान, अदन्तधावन, मल परीषह आदि द्वारा रजोधारण संयम का आवश्यक अंग माना गया है। बुद्ध के समय में भी रजोजल्लिक श्रमण विद्यमान थे । बुद्ध भगवान ने श्रमणों की आचार-प्रणाली में व्यवस्था लाते हुए एक बार कहा था ___"नाहं भिक्खवे संघाटिकस्य संघाटिधारणमत्तेन सामनं वदामि, अचेलकस्स अचेलकमत्तेन रजोजल्लिकस्य रजोजल्लिकमत्तेन....जटिलकस्स जटाधारणमत्तेन सामयं वदामि ।" (मज्झिमनिकाय ४०) __ अर्थात्-हे भिक्षुओं मैं संघाटिक के संघाटी धारणमात्र से श्रामण्य नहीं कहता, अचेलक के अचेलकत्वमात्र से, रजोजल्लिक के रजोजल्लिकत्व मात्र से और। जटिलक के जटाधारण-मात्र से भी श्रामण्य नहीं कहता । ___ अब प्रश्न यह होता है कि जिन वातरशना मुनियों के धर्मों की स्थापना करने तथा रजोजल्लिक वृत्ति द्वारा कैवल्य की प्राप्ति सिखलाने के लिये भगवान् ऋषभदेव का अवतार हुआ था, वे कब से भारतीय साहित्य में उल्लिखित पाये जाते हैं। इसके लिये जब हम भारत के प्राचीनतम ग्रन्थ वेदों को देखते हैं, तो हमें वहाँ भी वातरशना मुनियों का उल्लेख अनेक स्थलों में दिखाई देता है । ऋग्वेद की वातरशना मुनियों के संबंध की ऋचाओं में उन मुनियों की साधनायें ध्यान देने योग्य हैं । एक सूक्त की कुछ ऋचायें देखिये मुनयो वातरशना : पिशंगा वसते मला। वातस्यानु धाजि यन्ति यद्देवासो अविक्षत ॥ उन्मदिता मौनेयेन वाताँ आतस्थिमा वयम् । शरोरेदस्माकं यूयं मासो अभि पश्यथ ॥ (ऋग्वेद १०,१३६,२-३) विद्वानों के नाना प्रयत्न होने पर भी अभी तक वेदों का निस्संदेह रूप से अर्थ बैठाना संभव नहीं हो सका है । तथापि सायण भाष्य की सहायता से मैं उक्त ऋचाओं का अर्थ इसप्रकार करता हूं:-अतीन्द्रियार्थदर्शी वातरशना मुनि मल धारण करते हैं, जिससे वे पिंगल वर्ण दिखाई देते हैं। जब वे वायु की गति को प्राणोपासना द्वारा धारण कर लेते हैं, अर्थात् रोक लेते हैं, तब वे अपनी तप की महिमा से दीप्यमान होकर देवता स्वरुप को प्राप्त हो जाते हैं। सर्व लौकिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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