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________________ जैन दर्शन चलाता हुआ और प्रतिक्षण शुद्धतर होता हुआ ऐसी असाधारण आध्यात्मिक विशुद्धि को प्राप्त हो जाता हैं, जैसी पहले कभी नहीं हुई थी, तब वह अपूर्वक ररण नामक आठवें गुणस्थान में आ जाता हैं । इस गुणस्थान में किंचित् काल रहने पर जब ध्याता के प्रतिसमय के एक-एक परिणाम अपनी विशेष विशुद्धि को लिये हुए भिन्न रूप होने लगते है, तब अनिवृत्तिकररण नामक नौवां गुणस्थान आरम्भ हो जाता है । इस गुणस्थानवर्ती समस्त साधकों का उस समयवर्ती परिणाम एकसा ही होता है; अर्थात् प्रथम समयवर्ती समस्त ध्याताओं का परिणाम एकसा ही होगा; दूसरे समय का परिणाम प्रथम समय से भिन्न होगा; और वह भी सब का एकसा ही होगा। इसप्रकार इस गुणस्थान में रहने के काल के जितने समय होंगे, उतने ही भिन्न परिणाम होंगे; और वे सभी साधकों के उसी समय में एकसे होंगे, अन्य समय में नहीं । इस गुणस्थान सम्बन्धी विशेष विशुद्धि के द्वारा जब कर्मों का इतना उपशमन व क्षय हो जाता है कि लोभ कषाय के अतिसूक्ष्मांश को छोड़कर शेष समस्त कषाय क्षीण या उपशान्त होजाते हैं, तब जीव को सूक्ष्म साम्पराय नामक दशवां गुणस्थान प्राप्त हो जाता है, यहां आत्मविशुद्धि का स्वरूप ऐसा बतलाया गया है कि जिस प्रकार केशर से रंगे हुए वस्त्र को धो डालने पर भी उसमें केशरी रंग का अतिसूक्ष्म आभास रह जाता है, उसी प्रकार इस गुणस्थान वर्ती के लोभ संज्वलन कषाय का सद्भाव रह जाता है । २७६ उपशम व क्षपक श्रेणियां सातवें गुणस्थान से आगे जीव उपशम व क्षपक, इन दो श्रेणियों द्वारा ऊपर के गुणस्थानों में बढ़ते हैं । यदि वे कर्मों का उपशम करते हुए दसवें गुणस्थान तक आये हैं, तब तो उस अवशिष्ट लोभ संज्वलन कषाय का भी उपशमन करके उपशांत मोह नामक ग्यारहवां गुणस्थान प्राप्त करेगें; और उसमें किंचित काल रहकर नियमतः नीचे के गुणस्थानों में गिरेंगे । इस प्रकार उपशमश्रेणी की यही चरमसीमा हैं । किन्तु जो जीव सातवें गुणस्थान से क्षायिकरणी द्वारा अर्थात् कर्मों का क्षय करते हुए ऊपर बढ़ते हैं, वे दसवें गुणस्थान के पश्चात् उसी शेष लोभ संज्वलन कषाय का क्षय करके, ग्यारहवें गुणस्थान में न जाकर, सीधे क्षीरणमोह नामक बार बाहरवें गुणस्थान को प्राप्त कर लेते हैं । इसप्रकार ग्याहरवें व बारहवें दोंनो गुणस्थानों में मोहनीय कर्म के अभाव से उत्पन्न आत्मविशुद्धि की मात्रा एक सी ही होती हैं, और जीव पूर्णतः तवीराग हो जाते हैं; किन्तु ज्ञानावरणीयादि कर्मों के सद्भाव के कारण केवलज्ञान प्राप्त नहीं होता; इसीलिए छद्मस्थ वीतराग कहलाते हैं। इन दोनों गुणस्थानों में भेद यह है कि ग्याहरवें गुणस्थान में मोहनीय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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