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________________ गुणस्थान २७५ क्षायोपशमिक सम्यक्त्व दीर्घकालीन भी हो सकता है, अल्पकालीन भी। यद्यपि इनमें से कोई भी सम्यक्त्व प्राप्त होने पर एक नियत काल-मर्यादा के भीतर वह जीव निश्चयतः मोक्ष का अधिकारी हो जाता है; तथापि उसके लिये उसे कभी न कभी क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त करना अनिवार्य है। जब तक उसे इसकी प्राप्ति नहीं होगी; तब तक वह परिणामों के अनुसार ऊपर-नीचे के गुणस्थानों में चढ़ता-उतरता रहेगा । यदि वह सम्यक्त्व से च्युत हुआ तो उसे तीसरा गुणस्थान भी प्रास हो सकता है, जो उसमें होनेवाले मिश्र भावों के कारण, सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान कहलाता है; अथवा दूसरा गुणस्थान भी, जी सासादन कहलाता है। क्योंकि इसमें जीव सम्यक्त्व से च्युत होकर भी पूर्णतः मिथ्यात्व भाव को प्राप्त नहीं हो पाता, और उसमें सम्यक्त्व का कुछ प्रास्वादन (अनुभवन) बना रहता है । यह यथार्थतः चतुर्थं गुणस्थान से गिरकर प्रथम स्थान में पहुंचने से पूर्व की मध्यवर्ती अवस्था है, जिसका काल स्वभावतः अत्यल्प होता हैं, और जीव उस भाव से निकल कर शीघ्र ही प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान में आ गिरता है। सम्यक्त्व नामक चतुर्थ गुणस्थान में आत्म-चेतना रूप धार्मिक दृष्टि तो प्राप्त हो जाती है, क्योंकि कषायों की अनन्तानुबन्धी चार प्रकृतियों का, उपशम,क्षय, या क्षयोपशम हो जाता है। किन्तु अप्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय बना रहता हैं; और इसीलिये यह गुणस्थान अविरत-सम्यक्त्व कहलाती है। जब इन प्रकृतियों का भी उपशमादि हो जाता है, तो जीव के अणुव्रत धारण करने योग्य परिणाम उत्पन्न हो जाते हैं और वह वेशविरत व संयनासंयत नामक पांचवा गुणस्थान प्राप्त कर लेता है। इस गुणस्थान की सीमा अणुव्रत तक ही हैं, क्योंकि यहां प्रत्याख्यानावरण कषायों का उदय बना रहता हैं। जब इन कषायों का भी उपशमादि हो जाता है, तब जीव के परिणाम और भी विशुद्ध होकर वह महाव्रत धारण कर लेता है । यह छठा व इससे ऊपर के समस्त गुणस्थान सामान्यतः संयत कहलाते हैं। किन्तु उनमें भी विशुद्धि का तरतमभाव पाया जाता है, जिसके अनुसार छठा गुणस्थान प्रमत्तविरत कहलाता है; क्योंकि यहां संयमभाव पूर्ण होते हुए भी प्रमाद रूप मन्द कषायों का उदय रहना है, जिसके कारण उसकी परिणति स्त्रीकथा, चोरकथा, राजकथा आदि विकथाओं व इन्द्रियों आदि की और झुक जाती है, क्योंकि उसके संज्वलन कषाय का उदय रहता है । जब संज्वलन कषायों का भी उपशमादि हो जाता है, तब उसे अप्रमत्त संयत नामक सातवें गुणस्थान की प्राप्ति होती है। यहां से लेकर आगे की समस्त अवस्थाएं ध्यान की हैं; क्योंकि ध्यानावस्था के सिवाय प्रमादों का अभाव सम्भव नहीं। इस ध्यानावस्था में जब संयमी यथाप्रवृत्तकरण अर्थात् विशुद्धि की पूर्वधारा को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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