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गुणस्थान
कर्म उपशान्त अवस्था में अभी भी शेष रहता है, जो अन्र्तमुहूर्त के भीतर पुनः उमरकर जीव को नीचे के गुणस्थान में ढकेल देता है; किन्तु बारहवें गुणस्थान
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मोह सर्वथा क्षीण हो जाने के कारण इस पतन की कोई सम्भावना नहीं रहती । इसे अब केवल अपने ज्ञानावरणी और दर्शनावरणी कर्मों को शेष प्रकृतियों का क्षय करके केवलज्ञान प्राप्त करना रह जाता है । यह कार्य सम्पन्न होने पर जीव को संयोग केवली नामक तेरहवां गुणस्थान प्राप्त हो जाता है । इस गुणस्थानवर्ती जीवों को वह केवलज्ञान प्राप्त होता है, जिसके द्वारा उन्हें विश्व की समस्त वस्तुओं का हस्तामलकवत् प्रत्यक्ष ज्ञान हो जाता है । इन केवलियों के दो भेद हैं- एक सामान्य, और दूसरे वे जो तीर्थंकर नामकर्म के उदय से धर्म की व्यवस्था करने वाले तीर्थंकर बनते हैं । इस गुणस्थान को संयोगी कहने की सार्थकता यह है कि इन जीवों के अभी भी शरीर का सम्बन्ध बना हुआ है; व नाम, गोत्र, आयु और वेदनीय इन चार अघातिया कर्मों का उदय विद्यमान है । जब केवली की आयु स्वल्प मात्र शेष रहती है, तब यदि उसके नाम, गोत्र और वेदनीय, इन तीन कर्मों की स्थिति आयुकर्म से अधिक हो तो वह उसे समुद्घात - क्रिया द्वारा आयुप्रमाण कर लेता है । इस क्रिया में पहले आत्म- प्रदेशों को दंड रूप से लोकान तक फैलाया जाता है, फिर दोनों पावों में फैलाकर कपाटरूप चौड़ा कर लिया जाता है, तत्पश्चात् आगे पीछे की ओर शेष दो दिशाओं में फैलाकर उसे प्रतर रूप किया जाता है; और अन्ततः लोक के अवशिष्ट कोण रूप भागों में फैलाकर समस्त लोक को भर दिया जाता हैं । ये क्रियाएं एक-एक समय में पूर्ण होती हैं; और वे क्रमश: दंड, कपाट, प्रतर लोकपूरण समुद्घात कहलाती हैं । अन्य चार समयों में विपरीत क्रम से आत्म प्रदेशों को पुनः समेट कर शरीर प्रमाण कर लिया जाता है । इस क्रिया से जिस प्रकार गीले वस्त्र को फैलाने से उसकी आर्द्रता शीघ्र निकल जाती है, उसी प्रकार आत्मप्रदेशों के फैलने से उनमें संसक्त कर्म-प्रदेशों का स्थिति व अनुभागांश क्षीण होकर आयुप्रमाण हो जाता है । इसके पश्चात् केवली काययोग से भी मुक्त होकर, प्रयोग केवली नामक चौदहवां गुणस्थान प्राप्त कर लेता है । इस अष्टकर्म-विमुक्त सर्वोत्कृष्ट सांसारिक अवस्था का काल अतिस्वल्प कुछ समय मात्र ही हैं, जिसे पूर्णकर जीव अपनी शुद्ध, शाश्वत, अनन्त ज्ञान-दर्शनसुख और वीर्य से युक्त परम अवस्था को प्राप्त कर सिद्ध बन जाता हैं ।
सम्यग्ज्ञानत्रयेण प्रविदित- निखिलज्ञेयतत्त्वप्रेपञ्चाः
प्रोद्धय ध्यानवातैः सकलमथ रजः प्राप्तकैवल्यरूपाः ।
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