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मुनि धर्म
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है, ऐसा अनासक्ति भाव उत्पन्न करना अकिंचन धर्म है, (९) तथा रागोत्पादक परिस्थितियों में भी मन को काम वेदना से विचलित न होने देना व उसे आत्म चिन्तन में लगाये रहना ब्रह्मचर्य धर्म है (१०) ।
इस दश धर्मों के भीतर सामान्यतः चार कषायों तथा अणुव्रत व महाव्रतों द्वारा निर्धारित पांच पापों के अभाव का समावेश प्रतीत होता है। किन्तु धर्मों की व्यवस्था की विशेषता यह है कि उनमें कषायों और पापों के अभाव मात्र पर नहीं, किन्तु उनके उपशामक विधानात्मक क्षमादि गुणों पर जोर दिया गया है। चार कषायों के उपशामक प्रथम चार धर्म हैं, तथा हिंसा असत्य, चौर्य, अब्रह्म व परिग्रह के उपशामक क्रमशः संयम, सत्य, त्याग, ब्रह्मचर्य और अकिंचन धर्म हैं । इन नौ के अतिरिक्त तप का विधान मुनिशर्या को विशेष रूप से गृहस्थ धर्म से आगे बढ़ाने वाला है।
१२ अनुप्रेक्षाएं- अनासक्ति योग के अभ्यास के लिये जो बारह अनुप्रेक्षाएं या भावनाएं बतलाई गई हैं. वे इस प्रकार हैं-आराधक यह चिन्तन करे कि संसार का स्वभाव बड़ा क्षणभंगुर है; यहां मेरा-तेरा कहा जाने वाला जो कुछ है, सब अनित्य है, अतएव उसमें आसक्ति निष्फल है; वह अनित्य भावना है (१) । जन्म-जरामृत्यु रूप भयों से कोई किसी की रक्षा नहीं कर सकता; इन भयों से छुटने का उपाय आत्मा में ही है, अन्यत्र नहीं; यह प्रारण भावना है (२)। संसार में जीव जिस प्रकार चारों गतियों में घूमता है, और मोहवश दु:ख पाता रहता हैइसका विचार करना संसार भावना है (३) । जीव तो अकेला ही जन्मता व बाल्य, यौवन व वृद्धत्व का अनुभव करता हुआ अकेला ही मृत्यु को प्राप्त होता है। यह विचार एकत्व भावना है (४) । देहादि समस्त इन्द्रिय-ग्राह्य पदार्थ प्रात्मा से भिन्न हैं, इनसे आत्मा का कोई सच्चा नाता नहीं है, यह अन्यत्व भावना है (५) । यह शरीर रुधिर, माँस व अस्थि का पिंड है; और मल-मूत्रादि अशुचि पदार्थों से भरा हुआ है. इनसे अनुराग करना व उसे सजाना-धजाना निष्फल है, यह अशुचित्व भावना है (६) । क्रोधादि कषायों से तथा मन-वचन काय की प्रवृत्तियों से किस प्रकार कर्मों का आस्रव होता है, इसका विचार करना मानव भावना है (७)। व्रतों तथा समिति, गुप्ति, धर्म, परीषहजय व प्रस्तुत अनुप्रेक्षाओं द्वारा किस प्रकार कर्मानव को रोका जा सकता है, यह चिन्तन संवर भावना है (८) । व्रतों आदि के द्वारा तथा विशेष रूप से बारह
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