________________
जैन दर्शन
प्रकार के तपों द्वारा बंधे हुए कर्मों का किस प्रकार क्षय किया जा सकता है, यह चिन्तन निर्जरा भावना है ( ६ ) । इस अनन्त आकाश, उसके लोक व आलोक विभाग, उनके अनादित्व व अकर्तृत्व तथा लोक में विद्यमान समस्त जीवादि द्रव्यों का विचार करना लोक भावना है (१०) । इस अनादि संसार में यह जीव किस प्रकार अज्ञान और मोह के कारण नाना योनियों में भ्रमण के दुःख पाता रहा है, कितने पुण्य के प्रभाव से इसे यह मनुष्य योनि मिली है, तथा इस मनुष्य जन्म को सार्थक करने वाले दर्शन - ज्ञान चारित्र रूप तीन रत्न कितने दुर्लभ हैं, यह चिन्तन बोधिदुर्लभ भावना है ( ११ ) | सच्चे धर्म का स्वरूप क्या है, और उसे प्राप्त कर किस प्रकार सांसारिक दुःखों से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है, यह चिन्तन धर्म भावना है ( १२ ) । इस प्रकार इन बारह भावनाओं से साधक को अपनी धार्मिक प्रवृत्ति में दृढ़ता व स्थिरता प्राप्त होती है ।
२७०
३ गुप्तियां
दिया गया है । मन
है— सत्य, असत्य, बातों का समावेश
ऊपर अनेक बार कहा जा चुका है कि मन-वचन-काय की क्रिया रुप योग के द्वारा कर्मास्रव होता हैं, और कर्मबन्ध को रोकने तथा बंधे हुए कर्मों की निर्जरा करने में इस त्रियोग की साधना विशेष रुप से आवश्यक हैं । यथार्थतः समस्त धार्मिक साधना के मूल में मन-वचन-काय की प्रवृत्ति - निवृत्ति ही तो प्रधान है । अतएव इनकी सदसत् प्रवृत्ति का विशेष रुप से स्वरुप बतलाकर साधक को उनके सम्बन्ध में विशेष सावधानी रखने का आदेश और वचन इन दोनों की प्रवृत्ति चार प्रकार की कही गयी उभय और अनुभय । सत्य में यथार्थता और हित, इन दोनों माना गया हैं । इसी सत्य के अनुचिन्तन में प्रवृत्त मन की मन, उससे विपरीत असत्यमन, मिश्रित भाव को उभय दोनों से हीन मानसिक अवस्था को अनुभय रुप मन कहा गया हैं । इन अवस्थाओं में से सत्य मनोयोग की ही साधना को मनोगुप्ति कहा गया है । शब्दात्मक वचन यथार्थतः मन की अवस्था को व्यक्त करने वाला प्रतीक मात्र है । अतएव उक्त चारों मनोदशाओं के अनुकूल वचन - पद्धति भी चार प्रकार की हुई । तथापि लोक व्यवहार में सत्य वचन भी दस प्रकार का रुप धारण कर लेता है । कहीं शब्द अपने मूल वाच्यार्थ से च्युत होकर भी जनपद, सम्मति, स्थापना, नाम, रूप, अपेक्षा, व्यवहार, सम्भावना, रूढ़ियों द्वारा सत्य को प्रगट करता है । वाणी के अन्य प्रकार से भी नौ भेद
भाव व उपमा सम्बन्धी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
अवस्था को सत्य मन, और सत्यासत्य
www.jainelibrary.org