________________
मुनि धर्म
२६७ परीषह को भी उसे जीतना चाहिये (७)। मुनि को जब-तब और विशेषतः भिक्षा के समय नगर व ग्राम में परिभ्रमण करते हुए व गृहस्थों के घरों में सुन्दर व युवती स्त्रियों का एवं उनके हाव-भाव-विलासों का दर्शन होना अनिवार्य है। इससे उसके मन में चंचलता उत्पन्न हो सकती है, जिसे जीतना स्त्री-परीषह-जय कहलाता है (८) मुनि को वर्षाऋतु के चार माह छोड़कर शेष-काल में एक स्थान पर अधिक न रह कर देश-परिभ्रमण करते रहना चाहिये। इस निरंतर यात्रा से उसे मार्ग की अनेक कठिनाइयां सहनी पड़ती हैं; यही मुनि का पर्या परीषह है (९) । ठहरने के लिये मुनि को श्मशान, वन, ऊजड़ घर, पर्वत-गुफाओं आदि का विधान किया गया है, जहां उन्हें नाना-प्रकार की, यहां तक की सिंह-व्याघ्रादि हिंस्र पशुओं द्वारा आक्रमण की, बाधाएं सहनी पड़ती हैं; यही साधु का निषद्या परीषह-विजय है (१०)। मुनि को किंचित् काल शयन के लिये खर विषम, शिलातल आदि हीमिलेंगे; इसका क्लेश सहन करना शय्या-परीषह-जय है (११)। विरोधी जन मुनि को बहुधा गाली-गलौच भी कर बैठते हैं, इसे सहन करना प्राक्रोश-परीषह-जय है (१२)। यदि कोई इससे भी आगे बढ़कर मार-पीट कर बैठे, तो उसे भी सहन करना वध-परीषह-जय है (१३) मुनि को अपने आहार, वसति, औषध आदि के लिये गृहस्थों से याचना ही करनी पड़ती है (१४)। किन्तु इस कार्य में अपने में दीनता भाव न आने देने को याचना-परीषह-जय; तथा याचित वस्तु का लाभ न होने पर रुष्ट न होकर अलाभ से उसे अपनी तपस्या की वृद्धि मे लाभ ही हुआ, ऐसा समझकर सन्तोष भाव रखने को अलाभ-विजय कहते है (१५) । यदि शरीर किसी रोग, व्याधि व पीड़ा के वशीभूत हो जाय तो उसे शान्तिपूर्वक सहने का नाम रोग-विजय है (१६)। चर्या, शैया व निषद्यादि के समय जो कुछ तृण, कांटा कंकड़ आदि चुभने की पीड़ा हो, उसे सहना तृणस्पर्शविजय है (१७) । साधु को अपने शरीर से मोह छोड़ने के लिये जो स्नान न करने, दन्तादि अंग-प्रत्यंगों को साफ न करने तथा शरीर का अन्य किसी प्रकार भी संस्कार न करने के कारण उत्पन्न होनेवाली मलिनता से घृणा व खेद का भाव उत्पन्न न होने देने को मल परीषह-विजय कहते है (१८)। सामान्यतया व्यक्ति को विशेष सत्कार-पुरस्कार मिलने से हर्ष, और न मिलने से रोष व खेद का भाव उत्पन्न होता है। किन्तु मुनि को उक्त दोनों अवस्थाओं में रोषतोष की भावना से विचलित नहीं होना चाहिये । यह उसका सत्कार-पुरस्कार विजय है (१९)। विशेष ज्ञान का मद होना भी बहुत सामान्य है। साधु इस मद से मुक्त रहे, यह उसका प्रज्ञा-विजय (२०) । एवं ज्ञान न होने पर उद्विग्न न हो, यह उसका अज्ञान-विजय है (२१)। दीर्घ काल तक तप करते रहने पर भी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org