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________________ २६६ जैन दर्शन चक्षु आदि पांचों इंद्रियों का नियंत्रण करना, उन्हें अपने-अपने विषयों की ओर लोलुपता से आकर्षित न होने देना, ये मुनियों के पांच इन्द्रिय-निग्रह हैं। जीव मात्र में, मित्र-शत्रु में, दुःख-सुख में, लाभ-अलाम में, रोष-तोष भाव का परित्याग कर समताभाव रखना, तीर्थंकरों की गुणानुकीर्तन रूप स्तुति करना, अर्हन्त व सिद्ध की प्रतिमाओं व आचार्यादि की मन-वचन-काय से प्रदक्षिणाप्रणाम आदि रूप वन्दना करना; नियमितरूप से आत्मशोधन-निमित्त अपने अपराधों की निन्दा-गर्दा रूप प्रतिक्रमण करना; समस्त अयोग्य आचरण का परिवर्जन, अर्थात् अनुचित नाम नहीं लेना, अनुचित स्थापना नहीं करना, एवं अनुचित द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का परित्याग रूप प्रत्याख्यान; तथा अपने शरीर से भी ममत्व छोड़ने रूप विसर्गभाव रखना, ये छह मुनियों की मावश्यक क्रियाएं हैं। समय-समय पर अपने हाथों से केशलौंच अचेकलवृत्ति, स्नानत्याग, दन्तधावन-त्याग, क्षितिशयन, स्थितिभोजन अर्थात् खड़े रह कर आहार करना, और मध्यान्ह काल में केवल एक बार भोजन करना, ये मुनि की अन्य सात विशेष साधनाएं हैं। इसप्रकार मुनियों के कुल अट्ठाइस मूलगुण नियत किये गये हैं। २२ परीषह उपर्युक्त नियमों से यह स्पष्ट है कि साधु की मुख्य साधना है समत्व, जिसे भगवद्गीता में भी योग का मुख्य लक्षण कहा है (समत्वं योग उच्यते)। इस समताभाव को भग्न करने वाली अनेक परिस्थितियों का मुनि को सामना करना पड़ता है, और वे ही स्थितियां मुनि के समत्व की परीक्षा के विशेष स्थल हैं। ऐसी परिस्थितियां तो अगणित हो सकती हैं किन्तु उनमें में बाईस का विशेषरूप से उल्लेख किया गया है, और सन्मार्ग से च्युत न होने के लिये तत्सम्बन्धी क्लेशों पर विजय प्राप्त करने का आदेश दिया गया है। साधु अपने पास न खाने-पीने का सामान रखता, और न स्वयं पकाकर खा सकता। उसे इसके लिये भिक्षा वृत्ति पर अवलंबित रहना पड़ता है; सो भी दिन में केवल एक बार । उसे समय-समय पर एक व अनेक दिनों के लिये उपवास भी करना । पड़ता है । अतएव बीच-बीच में उसे भूख-प्यास सतावेंगे ही। इसीलिये क्षुधा (१) और तृषा (२) परीषह उसे आदि में ही जीतना चाहिये । वस्त्रों के अभाव में उसे शीत, उष्ण (३-४), डांस-मच्छर (५) व नग्नता (६) के क्लेश होना अनिवार्य है, जिन्हें भी उसे शान्तिपूर्वक सहन करना चाहिये। एकान्त में रहने, उक्त भूख-प्यास आदि की बाधाएं सहने तथा इन्द्रिय-विषयों के अभाव से उसे मुनि अवस्था से कभी अरुचि भी उत्पन्न हो सकती है । इस परति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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