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श्रुत ज्ञान
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२८८ भेदों में मिलाकर मतिज्ञान ३३६ प्रकार का बतलाया गया है । इसप्रकार जैन सिद्धान्त में यहां इन्द्रिय-जन्य ज्ञान का बड़ा सूक्ष्म चिन्तन और विवेचन पाया जाता है; जिसे पूर्णतः समझने के लिये पदार्थभेद, इन्द्रिय-व्यापार व मनोविज्ञान के गहन चिन्तन की आवश्यकता है ।
श्रुतज्ञान --
मतिज्ञान के आश्रय से युक्ति, तर्क अनुमान व शब्दार्थ द्वारा जो परोक्ष पदार्थों की जानकारी होती है, वह श्रुतज्ञान है । इसप्रकार धुएं को देखकर अग्नि के अस्तित्व की; हाथ को देखकर या शब्द को सुनकर मनुष्य की; यात्री के मुख से यात्रा का वर्णन सुनकर विदेश की जानकारी व शास्त्र को पढ़कर तत्वों की, इस लोक-परलोक की, व आत्मा-परमात्मा आदि की जानकारी; यह सब श्रतज्ञान है श्रुतज्ञान के इन सब प्रकारों में सब से अधिक विशाल, प्रभावशाली और हितकारी वह लिखित साहित्य है, जिसमें हमारे पूर्वजों के चिन्तन और अनुभव का वर्णन व विवेचन संगृहीत हैं। इसीकारण इसे ही विशेष रूप से श्रुतज्ञान माना गया है । जैनधर्म की दृष्टि से उस श्रुतज्ञान को प्रधानता दी गई है जिसमें अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर के धर्मोपदेशों का संग्रह किया गया है। इस श्रुतसाहित्य के मुख्य दो भेद हैं - अंगप्रविष्ट और अंग-बाह्य । अंग प्रविष्ट में उन आचारांगादि १२ श्रुतांगों का समावेश होता है, जो भगवान् महावीर के साक्षात् शिष्यों द्वारा रचे गये थे; व जिनके विषयादि का परिचय इससे पूर्व साहित्य के व्याख्यान में कराया जा चुका है। अंग बाह्य में वे दशवैकालिक, उत्तराध्ययनादि उत्तरकालीन आचार्यों की रचनाएं आती हैं, जो श्रुतांगों के आश्रय से समय समय पर विशेष प्रकार के श्रोताओं के हित की दृष्टि से विशेष-विशेष विषयों पर प्रयोजनानुसार संक्षेप व विस्तार से रची गई हैं। और जिनका परिचय भी साहित्य-खंड में कराया जा चुका है। ये दोनों आर्थात् मतिज्ञान और श्रुतज्ञान परोक्ष माने गये हैं। क्योंकि वे आत्मा के द्वारा साक्षात् रूप से न होकर, इन्द्रियों व मन के माध्यम द्वारा ही उत्पन्न होते हैं। तथापि पश्चात्कालीन जैन न्याय की परम्परा में मतिज्ञान को इन्द्रिय-प्रत्यक्ष होने की अपेक्षा सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष माना गया है।
अवधिज्ञान
आत्मा में एक ऐसी शक्ति मानी गयी है जिसके द्वारा उसे इन्द्रियों के अगोचर अतिसूक्ष्म, तिरोहित व इन्द्रिय सन्निकर्ष के परे दूरस्थ पदार्थों का भी
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