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________________ २४४ जैन दर्शन केवलदर्शन । चक्ष इन्द्रिय पर-पदार्थ के साक्षात स्पर्श किये बिना निर्दिष्ट दूरी से पदार्थ को ग्रहण करती है। अतएव इस इन्द्रिय-ग्रहण को जागृत करने वाली चक्षुदर्शन रूप वृत्ति उन शेष अचक्षु-दर्शन से उबुद्ध होनेवाली इन्द्रिय-वृत्तियों से भिन्न है, जो वस्तुओं का श्रोत्र, घ्राण, जिह्वा व स्पर्श इन्द्रियों से अविरल सन्निकर्ष होने पर होता है। इन्द्रियोंके अगोचर, सूक्ष्म, तिरोहित या दूरस्थ पदार्थों का बोध कराने वाले अवधि ज्ञान के उद्भावक आत्म-चैतन्य का नाम अवधिदर्शन है; और जिस आत्मावधान के द्वारा समस्त ज्ञेय को ग्रहण करने की शक्ति जागृत होती है, उस स्वावधान का नाम केवल दर्शन है। मतिज्ञान इसप्रकार आत्मावधान रूप दर्शन के निमित्त से उत्पन्न होनेवाले ज्ञान के पांच भेद हैं-मति, श्रुत, अवधि, मनः पर्यय और केवल । ज्ञेय पदार्थ और इन्द्रिय-विशेष का सन्निकर्ष होने पर मन की सहायता से जो वस्तुबोध उत्पन्न होता है यह मतिज्ञान है। पदार्थ और इन्द्रिय का सन्निकर्ष होने पर मन की सचेत अवस्था में जो आदितम 'कुछ है' ऐसा बोध होता है, वह अवग्रह कहलाता है। उस अस्पष्ट वस्तुबोध के सम्बन्ध में विशेष जानने की इच्छा का नाम ईहा है। उसके फलस्वरूप वस्तु का जो विशेष बोध होता है वह अवाय; और उसके कालान्तर में स्मरण करने रूप संस्कार का नाम धारणा है । इसप्रकार मतिज्ञान के ये चार भेद हैं। ज्ञेय पदार्थ संख्या में एक भी हो सकता है, या एक ही प्रकार के अनेक । प्रकार की अपेक्षा से वे बहुत अर्थात् विविध प्रकार के एकएक हों, या बहुविध ; अर्थात् अनेक प्रकार के अनेक । उनका आदि ग्रहण शीघ्र भी हो सकता है या देर से। वस्तु का सर्वांग-ग्रहण भी हो सकता है, या एकांग । उक्त का ग्रहण हो या अनुक्त का; एवं ग्रहण ध्र व रूप भी हो सकता है, व हीनाधिक अध्रव रूप भी। इसप्रकार गृहीत पदार्थ की अपेक्षा से अवग्रहादि चारों भेदों के १२-१२ भेद होने से मतिदान के ४८ भेद हो जाते हैं। ग्रहण करने वाली पांचों इन्द्रियों और एक मन, इन छह की अपेक्षा से उक्त ४८ . भेद ६ गुणित होकर २८८ (४८४६) हो जाते हैं। ये भेद ज्ञेय-पदार्थ और ग्राहक-इन्द्रियों की अपेक्षा से हैं । किन्तु जब पदार्थ का ग्रहण अध्यक्त प्रणाली से क्रमशः होता है, तब जिसप्रकार कि मिट्टी का कोरा पात्र जलकणों से सिक्त होकर पूर्ण रूप से गीला क्रमशः हो पाता है, तब उस प्रक्रिया को व्यंजनावग्रह कहते हैं। इसके ईहादि तीन भेद न होकर, तथा चक्षु और मन की अपेक्षा सम्भव न होने से उसके केवल १x१२४४=४८ भेद होते हैं। इन्हें पूर्वोक्त Jain Education International For 'Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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