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जैन दर्शन
ज्ञान हो सकता है । इस ज्ञान को अवधिज्ञान कहा गया हैं; क्योंकि यह देश की मर्यादा को लिये हुए होता है । अवधिज्ञान के दो भेद हैं - एक भव- प्रत्यय और दूसरा गुण- प्रत्यय | देवों और नारकी जीवों में स्वभावतः ही इस ज्ञान का अस्तित्व पाया जाता है, अतएव वह भव- प्रत्यय हैं । मनुष्यों और पशुओं में यह ज्ञान विशेष गुण या ऋद्धि के प्रभाव से ही प्रकट होता है, और इस कारण इसे गुण- प्रत्यय अवधिज्ञान कहा गया है । इसके ६ भेद हैं—अनुगामी, अननुगामी, वर्द्धमान, हीयमान, अवस्थित और अनवस्थित । अनुगामी अवधिज्ञान जहां भी ज्ञाता जाय, वहीं उसके साथ जाता है; किन्तु अननुगामी अवधिज्ञान स्थान - विशेष से पृथक् होने पर छूट जाता है । वद्धमान अवधि एक बार उत्पन्न होकर क्रमशः बढ़ता जाता है, और इसके विपरीत हीयमान घटता जाता है । सदैव एकरूप रहनेवाला ज्ञान अवस्थित, एवं अक्रम से कभी घटने व कभी बढ़ने वाला अनवस्थित अवधिज्ञान कहलाता है । विस्तार की अपेक्षा अवधिज्ञान तीन प्रकार का है - देशावधि, परमावधि और सर्वावधि । इनमें ज्ञेय क्षेत्र व पदार्थों की पर्यायों के ज्ञान में उत्तरोत्तर अधिक विस्तार व विशुद्धि पाई जाती है । देशावधि एक बार होकर छूट भी सकता है और इस कारण वह प्रतिपाती है । किन्तु परमावधि व सर्वावधि अवधिज्ञान उत्पन्न होकर फिर कभी छूटते नहीं, जबतक कि उनका केवलज्ञान में लय न हो जाय ।
मन:पर्ययज्ञान
मन:पर्यय ज्ञान के द्वारा दूसरे के मन में चिन्तित पदार्थों का बोध होता है । इसके दो भेद हैं-ऋजुमति और विपुलमति । ऋजुमति की अपेक्षा विपुलमति मन:पर्ययज्ञान अधिक विशुद्ध होता है ऋजुमति एक बार होकर छूट भी सकता है; किन्तु विपुलमति ज्ञान अप्रतिपाती है; अर्थात् एक बार होकर फिर कभी छूटता नहीं ।
केवलज्ञान
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केवलज्ञान के द्वारा विश्वमात्र के समस्त रूपी-अरूपी द्रव्यों और उनकी त्रिकालवर्ती पर्यायों का ज्ञान युगपत् होता है । ये अवधि आदि तीनों ज्ञान प्रत्यक्ष माने गये हैं; क्योंकि वे साक्षात् आत्मा द्वारा बिना इन्द्रिय व मन की सहायता के उत्पन्न होते हैं । मति और श्रुतज्ञान से रहित जीव कभी नहीं होता, क्योंकि यदि जीव इनके सूक्ष्मतमांश से भी वंचित हो जाय, तो वह जीवत्व से ही च्युत हो जावेगा, और जड़ पदार्थ का रूप धारण कर लेगा । किन्तु यह होना असम्भव है. क्योंकि कोई भी मूल द्रव्य द्रव्यान्तर में परिणत नहीं हो सकता । मति और
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