________________
नाम-कर्म
२२६
वेदनीय कर्म
जो कर्म जीव को सुख या दुःख रूप वेदन उत्पन्न करता है, उसे वेदनीय कहते हैं । इसकी उत्तर प्रकृतियां दो हैं-साता वेदनीय, जो जीव को सुख का अनुभव कराता है, और असाता वेदनीय, जो दुःख का अनुभव कराता है । यहां अन्तराय कर्म की भोग और उपभोग प्रकृतियां, तथा वेदनीय की साता-असाता प्रकृतियों के फलोदय में भेद करना आवश्यक है। किसी मनुष्य को भोजन, वस्त्र, गृह आदि की प्राप्ति नहीं हो रही; इसे उसके लाभान्तराय कर्म का उदय कहा जायेगा । इनका लाभ होने पर भी यदि किसी परिस्थितिवश वह उनका मोग या उपभोग नहीं कर पाता, तो वह उसके भोग-उपभोगान्तराय कर्म का उदय माना जायेगा; और यदि उक्त वस्तुओं की प्राप्ति और उनका उपयोग होने पर भी उसे सुख का अनुभव न होकर, दुःख ही होता है, तो यह उसके असाता वेदनीय कर्म का फल है । सम्भव है किसी व्यक्ति के लामान्तराय कर्म के उपशमन से उसे भोग्य वस्तुओं की प्राप्ति हो गई हो, पर वह उनका सुख तभी पा सकेगा जब साथ ही उससे साता-वेदनीय कर्म का उदय हो। यदि असाता-वेदनीय कर्म का उदय है, तो उन वस्तुओं से भी उसे दुःख ही होगा।
आयु कर्म
जिस कर्म के उदय से जीव की देव, नरक, मनुष्य या तिथंच गति में आयु का निर्धारण होता है, वह आयु कर्म है; और उसकी ये ही चार अर्थात् देवायु, नरकायु, मनुष्यायु व तिर्यचायु उत्तर प्रकृतियाँ हैं ।
गोत्र कर्म__ लोक व्यवहार संबंधी आचरण को गोत्र माना गया है । जिस कुल में लोक पूजित आचरण की परम्परा है, उसे उच्चगोत्र, और जिसमें लोकनिन्दित आचरण की परम्परा है, उसे नीचगोत्र नाम दिया गया है। इन कुलों में जन्म दिलाने वाला कर्म गोत्र कर्म कहलाता है, और उसकी तदनुसार उच्चगोत्र व नीचगोत्र, ये दो ही उत्तर प्रकृतियां हैं । यद्यपि गोत्र शब्द का वैदिक परम्परा में भी प्रयोग पाया जाता है, तथापि जैन कर्म सिद्धान्त में उसकी उच्चता और नीचता में आचरण की प्रधानता स्वीकार की गई है।
नाम कम
जिसप्रकार मोहनीय कर्म के द्वारा विशेषरूप से प्राणियों के मानसिक
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org