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________________ २२८ जैन दर्शन गया है; और दूसरा द्वेष जो भिन्न पदार्थों से घृणा उत्पन्न करता है । यथार्थतः ये ही दो मूलकषाय या कषाय-भाव हैं, और इन्हीं के प्रभेद रूप क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषाय माने गये हैं। इनमें से प्रत्येक की तीव्रता और मन्दतानुसार अगणित भेद हो सकते हैं, किन्तु सुविधा के लिये चार भेद माने गये हैं, जो भौतिक दृष्टान्तों द्वारा स्पष्ट समझे जा सकते हैं। अनन्तानुबन्धी क्रोध पाषाण की रेखा के समान बहुत स्थायी होता है। उसका अप्रत्याख्यान रूप पृथ्वी की रेखा के सदृश,प्रत्याख्यान रूप धूलि की रेखा के समान; और संज्वलन, जल की रेखा के समान क्रमशः तीव्रतम से लेकर मन्दतम होता है। इसी प्रकार मन की चार अवस्थाएं, उसकी कठोरता व लचीलेपन के अनुसार, पासाण, अस्थि, काष्ठ और वेत्र के समान; माया की, उसकी वक्रता की जटिलता व हीनता के अनुसार, बांस की जड़, मेढ़े के सींग, गोमूत्र तथा खुरपे के सदृश; एवं लोभ कषाय की कृमिराग, कीट (ओंगन) शरीमल और हलदी के समान तीव्रता से मन्दता की ओर उक्त अनन्तानुबन्धी आदि चार चार अवस्थायें होती हैं । 'नो' का अर्थ होता है-ईषत् या अल्प । तदनुसार नोकषाय वे मानसिक विकार कहे गये हैं, जो उक्त कषायों के प्रभेद रूप होते हुए भी अपनी विशेषता व जीवन में स्पष्ट पृथक् स्वरूप के कारण अलग से गिनाये गये हैं। इन नोकषायों का स्वरूप उनके नाम से ही स्पष्ट है। इसप्रकार मोहनीय कर्म की उन अट्ठाइस उत्तर प्रकृतियों के भीतर अपनी एक विशेष व्यवस्थानुसार उन सब मानसिक अवस्थाओं का अन्तर्भाव हो जाता है, जो अन्यत्र रस व भावों के नाम से संक्षेप या विस्तार से वर्णित पाई जाती हैं । इन्हीं मोहनीय कर्मों की तीव्र व मन्द अवस्थाओं के अनुसार वे आध्यात्मिक भूमिकाएं विकसित होती हैं जिन्हें गुणस्थान कहते हैं जिनका वर्णन आगे किया जावेगा। अन्तरायकर्म जो कर्म जीव के बाह्य पदार्थों के आदान-प्रदान और भोगोपभोग तथा स्वकीय पराक्रम के विकास में विघ्न-बाधा उत्पन्न करता है, अन्तराय कर्म कहा गया है । उसकी पांच उत्तर प्रकृतियां है-दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय। ये क्रमशः जीव के दान करने, लाभ लेने, भोज्य व भोग्य पदार्थों का एक बार में, अथवा अनेक बार में, सुख लेने, एवं किसी भी परिस्थिति का सामना करने योग्य सामर्थ्य रूप गुणों के विकास में बाधक होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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