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________________ मोहनीय कर्म २२७ प्रचक्षुवर्शनावरणीय से शेष इन्दियों की शक्ति मन्द पड़ती है; तथा अवधि व केवल दर्शनावरणीयों द्वारा उन-उन दर्शनों के विकास में बाधा उपस्थित होती है। उक्त भिन्न-भिन्न ज्ञानों व दर्शनों के स्वरूप का वर्णन मागे किया जायगा । मोहनीय कर्म मोहनीय कर्म जीव के मोह अर्थात् उसकी रूचि व चारित्र में अविवेक, विकार व विपरीतता आदि दोष उत्पन्न करता है । इसके मुख्य भेद दो हैंएक वर्शन-मोहनीय, और दूसरा चारित्र-मोहनीय, जो क्रमशः दर्शन व चारित्र में उक्त प्रकार दूषण उत्पन्न करते हैं । दर्शन मोहनीय की उत्तरप्रकृतियां तीन हैं-मित्थ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व । चारित्र-मोहनीय के चार भेद हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ । ये चारों ही प्रत्येक अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन के भेदानुसार चार-चार प्रकार के होते हैं, जिनकी कुल मिलाकर सोलह उत्तरप्रकृतियां होती हैं। इनमें हास्य, रति, अरति, खेद, भय, ग्लानि एवं पुरुष, स्त्री व नपुंसक वेद-ये ६ नोकषाय मिलाने से मोहनीय कर्म की समस्त उत्तर-प्रकृतियों की संख्या अट्ठाइस हो जाती है। मोहनीय कर्म सब से अधिक प्रबल व प्रभावशाली पाया जाता है, और प्रत्येक प्राणी के मानसिक जीवन में अत्यन्त व्यापक व उसके लोक-चारित्र के निर्माण में समर्थ सिद्ध होता है । जीवन की क्रियाओं का आदि स्रोत जीव की मनोवृत्ति है । विशुद्ध मनोवृत्ति व दृष्टि का नाम ही सम्यग्दर्शन है । इस दर्शन की, विकार की तरतमतानुसार, अगणित अवस्थाएं होती हैं, जिन्हें मुख्यतः तीन भागों में विभाजित किया गया है। एक सर्वथा वह मूढ़ अवस्था जिसमें वस्तु के यथार्थ स्वरूप के ग्रहण की योग्यता सर्वथा नहीं होती, एवं वस्तु को विपरीत भाव से ग्रहण करने की संभावना होती है। यह दर्शन-मोहनी कर्म की मिथ्यात्व प्रकृति है। दूसरे, जहां इस मिथ्यात्व प्रकृति की जटिलता क्षीण होकर, उसमें सम्यग्दृष्टि का भी प्रादुर्भाव हो जाता है, तब उसे दर्शन-मोहनीय की मिश्र या सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति कहा जाता है । और तीसरी, जहां मिथ्यात्व क्षीण होकर दृष्टि शुद्ध हो जाती है. यद्यपि उसमें कुछ चांचल्य, मालिन्य व अगाढ़त्व बना रहता है, तब उसे सम्यक्त्व प्रकृति कहा जाता है । धार्मिक जीवन को समझने के लिये इन तीन मानसिक अवस्थाओं का ज्ञान बड़ा आवश्यक है, क्योंकि मूलतः ये ही अवस्थाएं चारित्र को सदोष व निर्दोष बनाती हैं। चारित्र में स्पष्ट विकार उत्पन्न करने वाले मानसिक भाव अनन्त हैं। किन्तु उन्हें हम दो सुस्पष्ट वर्गों में विभाजित कर सकते हैं—एक राग जो पर पदार्थ की ओर मनको आकर्षित व आसक्त करता है। इसे शास्त्र में पेज्ज (सं० प्रेयस्) कहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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