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________________ जैन दर्शन निर्यातवादी नहीं है, और सर्वथा स्वच्छन्दवादी भी नहीं है । जीव के प्रत्येक कर्म द्वारा किसी न किसी प्रकार की ऐसी शक्ति उत्पन्न होती है, जो अपना कुछ न कुछ प्रभाव दिखाये बिना नहीं रहती; और साथ ही जीव का स्वातन्त्र्य भी कभी इस प्रकार अवरुद्ध व कुंठित नहीं होता कि वह अपने कर्मों की दशाओं में सुधार- वधार करने में सर्वथा असमर्थ हो इस प्रकार जैन सिद्धान्त में मनुष्य के अपने कर्मों के उत्तरदायित्व तथा को बदल डालने की शक्ति, इन दोनों का भली-भांति समन्वय स्थापित किया गया है । जाय । पुरुषार्थ द्वारा अपनी परिस्थितियों २२६ कर्म- प्रकृतियां - (ज्ञानावरण कर्म) बंधे हुए कर्मों में उत्पन्न होने वाली प्रकृतियां दो प्रकार की हैं—मूल और उत्तर । मूल प्रकृतियां आठ हैं-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, अन्तराय वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र । इन आठ मूल प्रकृतियों की अपनी-अपनी भेदरूप विविध उत्तर प्रकतियां बतलाई गई हैं । ज्ञानावरणीय कर्म आत्मा के ज्ञानगुण पर ऐसा आवरण उत्पन्न करता है जिसके कारण संसारावस्था में उसका पूर्ण विकास नहीं होने पाता; जिस प्रकार कि वस्त्र के आवरण से सूर्य या दीपक का प्रकाश मन्द पड़ जाता है। इसकी ज्ञानों के भेदानुसार पांच उत्तर प्रकृतियां हैं, जिससे क्रमशः जीव का मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान मनःपर्षय ज्ञान व केवलज्ञान आवृत्त होता है । दर्शनावरणकर्म दर्शनावरणीय कर्म श्रात्मा के दर्शन नामक चैतन्य गुण को आवृत्त करता है । इस कर्म की निद्रा, निद्रा-निद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि; तथा चक्षुदर्शनावरणीय, अचक्षुदर्शनावरणीय, अवधिदर्शनावरणीय, और केवल दर्शनावरणीय, ये नौ उत्तम प्रकृतियां हैं । निद्रा कर्मोदय से जीव को निद्रा आती है । उसको गाढ़तर अवस्था अथवा पुनः पुनः वृत्ति को निद्रा निद्रा कहते हैं । प्रचला कर्म के उदय से मनुष्य को ऐसी निद्रा आती है कि वह सोते-सोते चलने-फिरने अथवा नाना इन्द्रिय व्यापार करने लगता है । प्रचलाप्रचला इसी का गाढ़तर रूप है, जिसमें उक्त क्रियाएं बार-बार व अधिक तीव्रता से होती हैं । स्त्यानगृद्धि कर्मोंदय के कारण जीव स्वप्नावस्था में ही उन्मत्त होकर नाना रौद कर्म कर डालता है । चक्षुदर्शनावरणीय कर्म के कारण नेत्रेन्द्रिय की दर्शनशक्ति क्षीण होती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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