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________________ बंध तत्त्व २२५ इस सकषाय अवस्था में उत्पन्न हुआ कर्मास्त्रव साम्परायिक कहलाता है, क्योंकि उसकी आत्मा में सम्पराय चलती हैं, और वह अपना कुछ न कुछ प्रभाव दिखलाये बिना आत्मा से पृथक नहीं होता। बन्ध तत्त्व उक्त प्रकार जीव की सकषाय अवस्था में आये हुए कर्म-परमाणुओं का आत्मप्रदेशों के साथ संबंध हो जाने को ही कर्मबंध कहा जाता है। यह बंध चार प्रकार का होता है-प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, और प्रदेश । प्रकृति वस्तु के शील या स्वभाव को कहते हैं। अतएव कर्म परमाणुओं में जिस प्रकार को परिणाम-उत्पादन शक्तियां आती हैं, उन्हें कर्मप्रकृति कहते हैं। कर्मों में जितने काल तक जीव के साथ रहने की शक्ति उत्पन्न होती है, उसे कर्म-स्थिति कहते हैं। उनकी तीव्र या मन्द फलदायिनी शक्ति का नाम अनुभाग है, तथा आत्मप्रदेशों के साथ कितने कर्म-परमाणुओं का बंध हुआ, इसे प्रदेश बंध कहते हैं। इस चार प्रकार की बंध-व्यवस्था के अतिरिक्त कर्म सिद्धान्त में कर्मों के सत्व, उदय, उदीरणा, उत्कर्षण, अपकर्षण. संक्रमण, उपशम, निधत्ति और निकाचना का भी विचार किया जाता है। बंधादि ये ही दश कर्मों के करण अर्थात् अवस्थाएं कहलाती हैं। बंध के चार प्रकारों का उल्लेख किया ही जा चुका है। बंध होने के पश्चात् कर्म किस अवस्था में आत्मा के साथ रहते हैं, इसका विचार सत्व के भीतर किया जाता है। अपनी सत्ता में विद्यमान कर्म जब अपनी स्थिति को पूरा कर फल देने लगता है, तब उसे कर्मों का उदय कहते हैं । कभी कभी आत्मा अपने भावों की तीव्रता के द्वारा कर्मों की स्थिति पूरी होने से से पूर्व ही उन्हें फलोन्मुख बना देता है, इसे उदीरणा कहते हैं । जिसप्रकार कच्चे फलों को विशेष ताप द्वारा उनके पकने के समय से पूर्व ही पका लिया जाता है, उसी प्रकार यह कर्मों की उदीरणा होती है। कर्मों के स्थिति-काल व अनुभाग (फलदायिनी शक्ति) में विशेष भावों द्वारा वृद्धि करने का नाम उत्कर्षण है। उसी प्रकार उसके स्थिति-काल व अनुभाग को घटाने का नाम अपकर्षण है। कर्मप्रकृतियों के उपभेदों का एक से दूसरे रूप परिवर्तन किये जाने का नाम संक्रमण है । कर्मों को उदय में आने से रोक देना उपशम है। कर्मों को उदय में आने से, तथा अन्य प्रकृति रूप संक्रमण होने से भी रोक देना नित्तिकरण है; और कर्मों की ऐसी अवस्था में ले जाना कि जिससे उसका उदय, उदीरण, संक्रमण, उत्कर्षण या अपकर्षण, ये कोई विपरिवर्तन न हो सके, उसे निकाचन कहते हैं। कर्मों के इन दश करणों के स्वरूप से स्पष्ट है कि जैन कर्म-सिद्धान्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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