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जैन दर्शन
ज्ञानेन्द्रियां कहा गया है, और इन्हीं के द्वारा जीव नानाप्रकार की क्रियाएं करता रहता है। विकसित प्राणियों में इन क्रियाओं का संचालन भीतर से एक अन्य शक्ति द्वारा होता है, जिसे मन कहते हैं; और जिसे नो-इन्द्रिय नाम दिया गया है। जिह्वा द्वारा, रसना के अतिरिक्त, शब्द या वाणी के उच्चारण का काम भी लिया जाता है। इस प्रकार जीव की क्रियाओं में काय, वाक् और मन, ये विशेषरूप से प्रबल साधन सिद्ध होते हैं, और इनकी ही क्रिया को जैन सिद्धान्त में योग कहा गया है। इनके अर्थात् काययोग, वाग्योग और मनोयोग के द्वारा आत्मा के प्रदेशों में एक परिस्पंदन होता है, जिसके कारण आत्मा में एक ऐसी अवस्था उत्पन्न हो जाती है, जिसमें उसके आसपास भरे हुए सूक्ष्मातिसूक्ष्म पुद्गल परमाणु आत्मा से आ चिपटते हैं। इसी आत्मा और पुद्गल परमाणुओं के संपर्क का नाम आश्रव है; एवं संपर्क में आनेवाले परमाणु ही कर्म कहलाते हैं; क्योंकि उनका आगमन उपर्युक्त काय, वाक् व मन के कर्म द्वारा होता है। इसप्रकार आत्मा के संसर्ग में आनेवाले उन पुद्गल परमाणुओं की कर्म संज्ञा लाक्षणिक है।
काय आदि योगों रूप आत्म-प्रदेशों में उत्पन्न होने वाला उपयुक्त परिस्पंदन दो प्रकार का हो सकता है--एक तो किसी क्रोध, मान आदि तीव्र मानसिक विकार से रहित साधारण क्रियाओं के रूप में; और दूसरा क्रोध, मान, माया और लोभ, इन चार तीव्र मनोविकार रूप कषायों के वेग से प्रेरित । प्रथम प्रकार का कर्मास्रव ईर्यापथिक अर्थात् मार्गगामी कहा गया है, क्योंकि उसके द्वारा आत्म और कर्मप्रदेशों का कोई स्थिर बंध उत्पन्न नहीं होता। वह आया
और चला गया; जिस प्रकार की किसी विशुद्ध सूखे वस्त्र पर बैठी धूल शीघ्र ही झड़ जाती है। देर तक वस्त्र से चिपटी नहीं रहती। इस प्रकार का कर्मास्रव समस्त संसारी जीवों में निरन्तर हुआ करता है, क्योंकि उनके किसी न किसी प्रकार की मानसिक, शारीरिक या वाचिक क्रिया सदैव हुआ ही करती है। किन्तु उसका कोई विशेष परिणाम आत्मा पर नहीं पड़ता। परन्तु जब जीव की मानसिक आदि क्रियाएँ कषायों से युक्त होती है, तब आत्म-प्रदेशों में एक ऐसी परपदार्थग्राहिणी दशा उत्पन्न हो जाती हैं जिसके कारण उसके संपर्क में आने वाले कर्मपरमाणु उससे शीघ्र पृथक् नहीं होते । यथार्थतः क्रोधादि विकारों की इसी शक्ति के कारण उन्हें कषाय कहा गया है। सामान्यतः वटवृक्ष के दूध के समान चेपवाले द्रव पदार्थों को कषाय कहते हैं, क्योंकि उनमें चिपकाने की
शक्ति होती है। उसी प्रकार क्रोध, मान आदि मनोविकार जीव में कर्मपर- माशुओं का आश्लेष कराने में कारणीभूत होने के कारण कषाय कहलाते हैं ।
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