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जैन दर्शन
गुणों व विकारों का निर्माण होता है। उसी प्रकार उसके शारीरिक गुणों के निर्माण में नामकर्म विशेष समर्थ कहा गया है। नामकर्म के मुख्यमेव ४२, तथा उनके उपभेदों की अपेक्षा ६३ उत्तर प्रकृतियां मानी गई हैं, जो इसप्रकार
(१) चार गति (नरक, तिर्यच, मनुष्य और देव), (२) पांच जाति (एकेन्द्रीय, द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय), (३) पांच शरीर (औदारिक, व क्रियिक, आहारक, तैजस और कार्मण ), (४-५) औदारिकादि पांचों शरीरों के पांच बंधन व उन्हीं के पाँच संघात, (६) छह शरीर संस्थान (समचतुरस्र, न्यग्रोधपरिमण्डल. स्वाति, कुब्ज, वामन और हुण्ड ), (७) तीन शरीरांगोपांग (औदारिक, वैक्रियिक और आहारक), (८) छह सहनन (वज्रवृषभनाराच, वज्रनाराच, नाराच, अर्द्ध नाराच, कीलित, और असंप्राप्तास्त्रपाटिका), (६) पांच वर्ण (कष्ण, नील, रक्त, हरित और शुक्ल), (१०) दो गंध (सुगन्ध और दुर्गन्ध), (११) पांच रस (तिक्त, कटु, कषाय, आम्ल और मधुर), (१२) आठ स्पर्श (कठोर, मृदु, गुरु, लघु, स्निग्ध, रुक्ष, शीत और उष्ण), (१३) चार आनुपूर्वी (नरकगतियोग्य, तिर्यग्गतियोग्य, मनुष्यगतियोग्य और देवगतियोग्य), (१४) अगुरुलघु, (१५) उपघात, (१६) परधात, (१७) उच्छ्वास, (१८) आतप, (१६) उद्योत, (२०) दो विहायोगति (प्रशस्त और अप्रशस्त), (२१) त्रस, (२२) स्थावर, (२३) बादर, (२४) सूक्ष्म, (२५) पर्याप्त, (२६) अपर्याप्त, (२७) प्रत्येक शरीर, (२८) साधारण शरीर,(२६) स्थिर, (३०) अस्थिर, (३१) शुभ, (३२) अशुभ, (३३) सुभग, (३४) दुभंग, (३५) सुस्वर, (३६) दुःस्वर, (३७) आदेय, (३८) अनादेय, (३६) यश कीति (४०) अयशःकीर्ति, (निर्माण और (४२) तीर्थंकर ।
उपर्युक्त कर्म प्रकृतियों में से अधिकांश का स्वरूप उनके नामों पर से अथवा पूर्वोक्त उल्लेखों से स्पष्ट हो जाता है। शेष का स्वरूप इसप्रकार हैपांच प्रकार के शरीरों के जो पांच प्रकार के बन्धन बतलाये गये हैं, उनका कर्तव्य यह है कि वे शरीर नामकर्म के द्वारा ग्रहण किये हुए पुद्गल परमाणुओं में परस्पर बंधन व संश्लेष उत्पन्न करते हैं, जिसके अभाव में वह परमाणुपुज रत्नराशिवत् विरल (पृथक्) रह जायगा । बंधन प्रकृति के द्वारा उत्पन्न हुए संशलिष्ट शरीर में संघात अर्थात् निश्छिद्र ठोसपन लाना संघात प्रकृति का कार्य है। संस्थान नामकर्म का कार्य शरीर की आकृति का निर्माण करना है । जिस शरीर के समस्त भाग उचित प्रमाण से निर्माण होते हैं, वह समचतुरस्त्र कहलाता है । जिस शरीर का नाभि से ऊपर का भाग अति स्थूल, और नीचे का
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