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________________ जीव तत्त्व आते रहते व मुक्त जीवों के संसार से निकलते जाने पर भी संसारी जीवनधारा को अनन्त बनाये रखते हैं । इस प्रकार के साधारण जीवों की मान्यता जैन सिद्धान्त की अपनी विशेषता हैं । अन्य दर्शनों में इस प्रकार की कोई मान्यता नहीं पाई जाती । वर्तमान वैज्ञानिक मान्यतानुसार एक मिलीमीटर ( १ /२६") प्रमाण रक्त में कोई ५० लाख जीवकोष (सेल्स) गिने जा चुके हैं । आश्चर्य नहीं जो जैन दृष्टाओं ने इसी प्रकार के कुछ ज्ञान के आधार पर उक्त निगोद जीवों का प्ररूपण किया हो । उक्त समस्त जीवों के शरीरों को भी दो प्रकार का माना गया है— सूक्ष्म और बादर । सूक्ष्म शरीर वह है जो द्रव्य से बाधित नहीं होता, और जो बाधित होता है, वह बादर कहा गया है । पूर्वोक्त पंचेन्द्रिय जीवों के पुनः दो भेद किये अर्थात् मन सहित, और दूसरे प्रसंज्ञी अर्थात् मनरहित । अन्य किसी भी (स्थूल ) शरीर गये हैं- एक संज्ञी सुफल भोगने के इन समस्त संसारी जीवों की दृश्यमान दो गतियां मानी गई हैं - एक मनुष्यगति और दूसरी पशु-पक्षि आदि सब इतर प्राणियों की तिर्यचगति । इनके अतिरिक्त दो और गतियां मानी गयी हैं - एक देवगति और दूसरी नरकगति । मनुष्य और तिर्यंचगतिवाले पुण्यवान् जीव अपने सत्कर्मों का लिये देवगति प्राप्त करते हैं, और पापी जीव अपने दुष्कर्मों का दंड भोगने के लिये नरक गति में जाते हैं । जो जीव पुण्य और पाप दोनों से रहित होकर वीतराग भाव और केवलज्ञान प्राप्त कर लेते हैं, वे संसार की इन चारों गतियों से निकल कर मोक्ष को प्राप्त करते हैं । संसारी जीवों की शरीर - रचना में भी विशेषता है । मनुष्य और तियंचों का शरीर प्रौदारिक अर्थात् स्थूल होता है, जिसमें उसी जीवन के भीतर कोई विपरिवर्तन सम्भव नहीं । किन्तु देवों और नरकवासी जीवों का शरीर वैक्रिमिक होता है, अर्थात् उसमें नाना प्रकार की विक्रिया या विपरिवर्तन सम्भव है । इन शरीरों के अतिरिक्त संसारी जीवों के दो और शरीर माने गये हैं-तेजस और कार्मण । ये दोनों शरीर समस्त प्राणियों में सदैव विद्यमान रहते हैं । मरण के पश्चात् दूसरी गति में जाते समय भी जीव से इनका संग नहीं छूटता। तेजस शरीर जीव और पुद्गल प्रदेशों में संयोग स्थापित किये रहता है, तथा कार्मण शरीर उन पुद्गल परमाणुओं का पुंज होता है, जिन्हें जीव निरन्तर अपने मन-वचन-काय की क्रिया के द्वारा संचित करता रहता है । इन दो शरीरों को हम जीव का सूक्ष्म शरीर कह सकते हैं । इन चार शरीरों के अतिरिक्त एक और विशेष प्रकार का शरीर माना गया है, जिसे श्राहारक शरीर कहते हैं । इसका निर्माण ऋद्धिधारी मुनि अपनी शंकाओं के निवारणार्थ दुर्गम प्रदेशों में विशेष ज्ञानियों के पास जाने के लिये अथवा तीर्थवन्दना के हेतु करते हैं । Jain Education International २१६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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