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________________ २१८ जैन दर्शन जीव के और भी अनेक गुण हैं । उसमें कर्तृत्व-शक्ति है, और उपभोग का सामर्थ्य भी । वह अमूर्त है; और जिस शरीर में वह रहता है उसके समस्त अंग-प्रत्यंगों को व्याप्त किये रहता है जीवो उवओगमओ अमुत्ति कत्ता सदेह-परिमाणो । मोत्ता संसारत्थो मुत्तो सो विस्ससोड्ढगई ॥ (द्रव्यसंग्रह, गा०-२) संसार में इसप्रकार के जीवों की संख्या अनन्त है। प्रत्येक शरीर में विद्यमान जीव अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखता है, और उस अस्तित्व का कभी संसार में या मोक्ष में विनाश नहीं होता । इस प्रकार जीव के संबंध में जैन विचारधारा वेदान्त दर्शन से भिन्न है, जिसके अनुसार ब्रह्म एक है, और उसका दृश्यमान अनेकत्व सत्य नहीं, मायाजाल है। जैन दर्शन में संसारवर्ती अनन्त जीवों को दो भागों में विभाजित किया गया है-साधारण और प्रत्येक । प्रत्येक जीव वे हैं, जो एक-एक शरीर में एक-एक रहते हैं, और वे इन्द्रियों के भेदानुसार पांच प्रकार के हैं--एकेन्द्रिय जीव वे हैं जिनके एक मात्र स्पर्शेन्द्रिय होती है। इनके पांच भेद हैं-पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय, और वनस्पतिकाय । स्पर्श और रसना जिन जीवों के होता है, वे द्वीदिन्य हैं, जैसे लट आदि । इसी प्रकार चींटी वर्ग के स्पर्श, रसना और घ्राण युक्त प्राणी त्रीन्द्रिय, भ्रमरवर्ग के नेत्र सहित चतुरिन्द्रिय, एवं शेष पशु, पक्षी व मनुष्य वर्गों के श्रोत्रेन्द्रिय सहित जीव पंचेन्द्रिय कहलाते हैं । एकेन्द्रिय जीवों को स्थावर और द्वीन्द्रियादि इतर सब जीवों को इस संज्ञा दी गई है । इन एक-एक शरीर धारी वृक्षादि समस्त प्राणियों के शरीरों में ऐसे साधारण जीवों की सत्ता मानी गई है, जिनकी आहार, श्वासोच्छवास आदि जीवन-क्रियाएं सामान्य अर्थात् तक साथ होती है। उन के इस सामान्य शरीर को निगोद कहते हैं, और प्रत्येक निगोद में एक साथ जीने व मरने वाले जीवों की संख्या अनन्त मानी गई है एग-निगोद-सरीरे नीवा दव्यप्पमाणदो दिट्ठा । सिद्धेहिं अनन्तगुरणा, सन्वेण विदीदकालेण ॥ __ (गो० जी० १९४) इन निगोदवती जीवों का आयु-प्रमाण अत्यल्प माना गया है। यहां तक कि एक श्वासोच्छवास काल में उनका अठारह बार जीवन व मरण हो जाता है । यही वह जीवों की अनन्त राशि है जिसमें से क्रमशः जीव ऊपर की योनियों में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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