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________________ प्राचीन इतिहास होता है, और उसके सूक्ष्म अध्ययन व विचार की बड़ी आवश्यकता प्रतीत होती है । इसी समन्वयात्मक अनेकांत सिद्धांत के आधार पर आज से लगभग डेढ़ हजार वर्ष पूर्व हुए समंतभद्राचार्य ने अपने युक्त्यनुशासन नामक ग्रन्थ में महावीर के जैन शासन को सब आपदाओं का निवारक शाश्वत सर्वोदय तीर्थ कहा है सर्वापदां अन्तकरं निरन्तं सर्वादयं तीर्थमिदं तवैव ।। (यु. ६१). प्राचीन इतिहास जैन पुराणों में भारत वर्ष का इतिहास उसके भौगौलिक वर्णन के साथ किया गया पाया जाता है । भारत जम्बूदीप के दक्षिणी भाग में स्थित है । इसके उत्तर में हिमवान् पर्वत है और मध्य में विजयार्द्ध पर्वत । पश्चिम में हिमवान् से निकली हुई सिन्ध नदी बहती है और पूर्व में गंगानदी, जिससे उत्तर भारत के तीन विभाग हो जाते हैं । दक्षिण भारत के भी पूर्व, मध्य और पश्चिम दिशाओं में तीन विभाग हैं । ये ही भारत के छह खंड हैं, जिन्हें विजय करके कोई सम्राट चक्रवर्ती की उपाधि प्राप्त करता है। ... भारत का इतिहास देश की उस काल की अवस्था के वर्णन से प्रारम्भ होता है, जब आधुनिक नागरिक सभ्यता का विकास नहीं हुआ था। उस समय भूमि घास और सघन वृक्षों से भरी हुई थी । सिंह, व्याघ्र हाथी, गाय, भैंस, आदि सभी पशु वनों में पाये जाते थे । मनुष्य ग्राम व नगरों में नहीं बसते थे, और कोटुम्बिक व्यवस्था भी कुछ नहीं थी। उस समय न लोग खेती करना जानते थे, न पशुपालन, न अन्य कोई उद्योग-धन्धे । वे अपने खान, पान, शरीराच्छादन आदि की आवश्यकताएं वृक्षों से ही पूरी कर लेते थे। इसीलिये उसी काल के वृक्षों को कल्पवृक्ष कहा गया है । कल्पवृक्ष अर्थात् ऐसे वृक्ष जो भनुष्यों की सब इच्छाओं की पूर्ति कर सकें। भाई-बहन ही पति-पत्नी रूप से रहने लगते थे, और माता-पिता अपने ऊपर संतान का कोई उत्तरदायित्व अनुभव नहीं करते थे। इस परिस्थिति को पुराणकारों ने भोग-भूमि व्यवस्था कहा है, क्योंकि उसमें आगे आने वाली कर्मभूमि सम्बन्धी कृषि और उद्योग आदि की व्यवस्थाओं का अभाव था। क्रमशः उक्त अवस्था में परिवर्तन हुआ, और उस युग का प्रारम्भ हुआ जिसे पुराणकारों ने कर्म-भूमि का युग कहा है न जिसे हम आधुनिक सभ्यता का प्रारम्भ कह सकते हैं । इस युग को विकास में लाने वाले चौदह महापुरुष माने गये हैं, जिन्हें कुलकर या मनु कहा है । इन्होंने क्रमशः अपने अपने काल में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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