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________________ जैन धर्म का उद्गम और विकास अपनी गाड़ी के पहियों के नीचे कुचल दे । अहिंसा सिद्धान्त का यही तत्व और मर्म है । किन्तु जीवन की जितनी विषम परिस्थितियां हैं और प्राणियों में जितनी विरोधात्मक वृत्तियां हैं, उनमें अहिंसा सिद्धान्त के पूर्णरूप से पालन किये जाने में बड़ी कठिनाइयां हैं । जैनधर्म मनुष्य की इन विषम परिस्थितियों को स्वीकार करके चलता है, और इसीलिये अहिंसा पालन में तरतम प्रणाली को स्थापित करता है । गृहस्थ एक सीमा तक ही अहिंसा का पालन कर सकता है, अतएव उसके लिये अणुव्रतों का विधान किया गया है । उसके आगे महाव्रतों का परिपालन मुनियों के लिये विहित है । गृहस्थ मार्ग भी बड़ा विशाल है, और उसकी भी अपनी नाना परिस्थतियां हैं । अतएव उसमें भी गृहस्थों के ग्यारह दर्जे स्थापित किये गये हैं । अहिंसा भी अपने रूप में एक प्रकार नहीं, भावना और क्रियारूप से वह भी दो प्रकार की है । क्रिया रूप में भी प्रयोजनानुसार वह अनेक प्रकार की है । मनुष्य से चलने-फिरने, घर-द्वार की सफाई करने में भी हिंसा हो सकती है । कृषि, वाणिज्य आदि व्यवसायों में भी जीव-हिंसा बचाई नहीं जा सकती। हो सकता है स्वयं अपनी, अपने बंधु-बान्धवों अथवा अपने घरद्वार व देश की रक्षा के लिये उसे आक्रमणकारी मनुष्यों का सामना करना पड़े । गृहस्थों के लिये इस प्रकार की हिंसा का निषेध नहीं किया गया । उसे बचने का आदेश दिया गया है उस हिंसा से, जो बिना उक्त प्रयोजनों के, क्रोध, वैर आदि दुष्ट भावनाओं से प्रेरित होकर संकल्पपूर्वक की गई हो । जैसे शिकार खेलने, बैर चुकाने या धनहरण करने आदि के लिये किसी का वध करना, इत्यादि । मुनि उक्त विविध उत्तरदायित्वों से मुक्त होते हैं, अतएव उन पर afare सूक्ष्मता से अहिंसा के परिपालन का भार डाला गया है । अथवा जैनधर्म के इस अहिंसा के स्वरूप पर विचार करने से, जो उस पर यह कलंक लगाया जाता है कि उसके कारण देश में शक्तिहीनता उत्पन्न हो गई व उसी कारण विदेशी आक्रामकों द्वारा देश की पराजय हुई, वह निर्मूल सिद्धहो जाता है । इतिहास साक्षी है कि प्राचीनतम काल से अनेक जैन धर्मावलम्बी वीरपुरुष हुए हैं, जिन्होंने अपना धर्म भी निबाहा है, और योद्धा व सेनापति का कर्तव्य भी । जैन अनेकान्त दृष्टि ने इन विरोधाभासों का परिहार करके अपने कर्तव्यों में सामंजस्य स्थापित करने की उसके अनुयायियों को अद्भुत शक्ति दी है । अब जबकि हमारा देश वैयक्तिक व्यवहार में ही नहीं, किन्तु राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय नीति के निर्धारण में भी अहिंसा तत्व को मौलिक रूप से स्वीकार कर चुका है, तब जैनधर्म का यह सिद्धान्त अनेक दृष्टियों से महत्वपूर्ण सिद्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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