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________________ २०६ जैन साहित्य बनेगा ? जो ज्ञान को भूत-विकार (जड़तत्त्व का रूपान्तर) मानता है, वह स्वयं भूत-गृहीत (पिशाच से आविष्ट) है, ऐसा समझना चाहिये । क्या किसी ने कहीं जीव के बिना ज्ञान को देखा है । जीव के स्वचेतन (स्क्संवेदन) प्रत्यक्ष होने पर भी जो मूर्ख उसे नहीं मानता, वह जीव नहीं है, ऐसा विचार करता हुआ, जीव का अभाव कैसे स्थापित कर सकता है ? (अर्थात् वस्तु के सद्भाव या अभाव का विचार करना, यही तो जीव का स्वभाव है)। यदि जीव नहीं तो सुख और दुःख का वेदन कौन करता है, एवं समस्त इन्द्रियों के विषयों को विशेष रूप से कौन जानता है ? जीव संकल्पमय है, और संकल्प सुख-दुःख मय है। उसी को सर्वत्र देह से मिला हुआ जीव वेदन करता है। क्योंकि देह से मिला हुआ जीव ही समस्त कर्म करता है, इसी कारण दोनो में प्रवर्त्तमान एकत्व दिखाई देता है। अवतरण-५ महाराष्ट्रो प्राकृत एए रिवू महाजस, जिणमि अहं न एत्थ संदेहो । वच्च तुमं अइतुरिओ, कन्तापरिरक्खणं कुणसु ॥१॥ एव भणिओ णियत्तो, तूरन्तो पाविओ तमुद्देसं । न य पेच्छइ जणयसुयं, सहसा ओमुच्छिओ रामो ॥२॥ पुणरवि य समासत्थो,दिट्ठी निक्खिवइ तत्थ तरुगहणे। घणपेम्माउलहियओ, भणइ तओ राहवो वयणं ॥३॥ एहेहि इओ सुन्दरि, वाया मे देहि, मा चिरावेहि । दिट्ठा सि रुक्खगहणे, किं परिहासं चिरं कुणसि ॥४॥ कन्ताविओगदुहिओ, तं रणं राहवो गवेसन्तो । पेच्छइ तओ जडागि, केंकायन्तं महिं पडियं ।।५।। पक्खिस्स कण्णजावं, देइ मरन्तस्स सुहयजोएणं । मोत्तण पूइदेहं, तत्थ जडाऊ सरो जाओ ॥६॥ पुणरवि सरिऊण पियं, मुच्छा गन्तूण तत्थ आसत्थो । परिभमइ गवेसन्तो, सीयासीयाकउल्लावो ॥७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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