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शौरसेनी प्राकृत
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अवतरण-४
शौरसेनी प्राकृत
जीवो गाणसहावो जह अग्गी उण्हवो सहावेण। . अत्यंतर-भूदेण हि गाणेण ण सो हवे गाणी ॥१॥ जदि जीवादो भिण्णं सव्व-पयारेण हवदि तं गाणं । गुण-गुणि-भावो य तहा दूरेण पणस्सदे दुण्हं ॥२॥ जीवस्स वि णाणस्स वि गुणि-गुण-भावेण कीरए भेओ। जं जाणदि तं गाणं एवं भेओ कहं होदि ॥३॥ णाणं भूय-वियारं जो मण्णदि सो वि भूद-गहिदव्यो । जीवेण विणा णाणं किं केण वि दीसदे कत्थ ॥४॥ सच्चेयण-पच्चक्खं जो जीवं णेव मण्णदे मूढो । सो जीवं ण मुणंतो जीवाभावं कहं कुणदि ॥५॥ जदि ण य हवेदि जीवो ता को वेदेदि सुक्ख-दुक्खाणि । इंदिय-विसया सव्वे को वा जाणदि विसेसेण ॥६॥ संकप्प-मओ जीवो सुह-दुक्खमयं हवेइ संकप्पो । तं चिय वेददि जीवो देहे मिलिदो वि सव्वत्थ ॥७॥ देह-मिलिदो हि जीवो सव्व-कम्माणि कुञ्चदे जम्हा । तम्हा पवट्टमाणो एयत्त बुज्झदे दोण्हं ॥८॥
. (कात्तिकेयानुप्रेक्षा, १७८-१८५)
(अनुवाद) जीव ज्ञान स्वभावी है, जैसे अग्नि स्वभाव से ही उष्ण है। ऐसा नहीं हैं कि किसी पदार्थान्तर रूप ज्ञान के संयोग से जीव ज्ञानी बना हो । यदि ज्ञान सर्वप्रकार से जीव से भिन्न है, तो उन दोनों का गुणगुणी भाव सर्वथा नष्ट हो जाता है (अर्थात् उनके बीच गुण और गुणी का संबंध नहीं बन सकता) । जीव और ज्ञान के वीच यदि गुणी और गुण के भाव से भेद किया जाय, तो जब जो जानता है वही ज्ञान है, यह ज्ञान का स्वरूप होने पर दोनों में भेद कैसे
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