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जैन साहित्य
एक चरण में, और शेष छिन्न अर्थात् एक गाथा में कहीं चार कहीं पांच और कहीं छह नाम कहे गये हैं । ग्रन्थ के ये ही चार परिच्छेद कहे जा सकते हैं। अधिकांश नाम और उनके पर्याय तद्भव हैं। सच्चे देशी शब्द अधिक से अधिक पंचमांश होंगे।
दूसरा प्राकृत कोष हेमचन्द्र कृत देशी-नाम-माला है । यथार्थत: इस ग्रन्थ का नाम स्वयं कर्ता ने कृति के आदि व अन्त में स्पष्टतः वेशी-शब्द-संग्रह सूचित किया है, तथा अन्त की गाथा में उसे रत्नावली नाम से कहा है । किन्तु ग्रन्थ के प्रथम सम्पादक डा० पिशैल ने कुछ हस्तलिखित प्रतियों के आधार से उक्त नाम ही अधिक सार्थक समझकर स्वीकार किया है, और पीछे प्रकाशित समस्त संस्करणों में इसका यही नाम पाया जाता है। इस कोष मे अपने ढंग की एक परिपूर्ण क्रम-व्यवस्था का पालन किया गया है । कुल गाथाओं की संख्या ७८३ है, जो आठ वर्गों में विभाजित हैं, और उनमें क्रमश: स्वरादि, कवर्गादि, चवर्गादि टवर्गादि, तवर्गादि, पवर्गादि, यकारादि और सकारादि शब्दों को ग्रहण किया गया है । सातवें वर्ग के आदि में कोषकार ने कहा है कि इस प्रकार की नाम-व्यवस्था व्याकरण में प्रसिद्ध नहीं है, किन्तु ज्योतिष शास्त्र में प्रसिद्ध है; और उसी का यहां आदर किया गया है। इन वर्गों के भीतर शब्द पुन: उनकी अक्षर-संख्या अर्थात् दो, तीन चार, व पांच अक्षरों वाले शब्दों के क्रम से रखे गये हैं, और उक्त संख्यात्मक शब्दों के भीतर भी अकारादि वर्णानुक्रम का पालन किया गया है । इस क्रम से एकार्थवाची शब्दों का आख्यान हो जाने पर फिर उन्हीं अकारादि खंडों के ही भीतर इसी क्रम से अनेकार्थवाची शब्दों का आख्यान किया गया है। इस क्रमपद्धति को पूर्णता से समझने केलये प्रथम वर्ग का उदाहरण लीजिये । इसमें आदि की छठी गाथा तक दो, १६ तक तीन, ३७ तक चार और ४६ वीं गाथा तक पांच अक्षरों वाले अकारादि शब्द कहे गये हैं। फिर ६० तक अकारादि, शब्दों के दो अक्षरादि क्रम से उनके अनेकार्थ शब्द संग्रहित हैं। फिर ७२ तक एकार्थवाची और ७६ तक अनेकार्थवाची आकारादि शब्द हैं । फिर इसी प्रकार ८३ तक इकारादि, ८४ में ईकारादि, १३६ तक उकारादि, १४३ में ऊकारादि, १४८ तक एकारादि, और अन्तिम १७४ वीं गाथा तक ओकारादि शब्दों के क्रम से एकार्थ व अनेकार्थवाची शब्दों का चयन किया गया है । यही क्रम शेष सब वर्गों में भी पाया जाता है। स्फुटपत्रक प्रणाली (कार्डिग सिस्टेम) के बिना यह क्रम-परिपालन असंभव सा प्रतीत होता है; अतएव यह पद्धति ज्योतिष शास्त्रियों और हेमचन्द्र व उनकी प्रणाली के पालक व्याकरणों में अवश्य प्रचलित रही होगी।
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