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________________ संस्कृत छंदशास्त्र चार्यों द्वारा निरूपित समस्त संस्कृत, प्राकृत, और अपभ्रंश छंदों का समावेश कर देने का प्रयत्न किया है, भले ही वे उनके समय में प्रचार में रहे हों या नहीं । भरत और पिंगल के साथ उन्होंने स्वयंभू का भी आदर से स्मरण किया ' है । माण्डव्य, भरत, काश्यप, सैतव, जयदेव, आदि प्राचीन छंदः शास्त्र प्रणेताओं के उल्लेख भी किये हैं । उन्होंने छंदों के लक्षण तो संस्कृत में लिखे हैं, किन्तु उनके उदाहरण उनके प्रयोगानुसार संस्कृत, प्राकृत या अपभ्रंश में दिये हैं । उदाहरण उनके स्वनिर्मित हैं; कहीं से उद्धृत किये हुए नहीं । हेमचन्द्र ने अनेक ऐसे प्राकृत छंदों के नाम लक्षण और उदाहरण भी दिये हैं, जो स्वयंभू-छंदस् में नहीं पाये जाते । स्वयंभू ने जहां १ से २६ अक्षरों तक के वृत्तों के लगभग १०० भेद किये हैं, वहां हेमचन्द्र ने उनके २८६ भेद-प्रभेद बतलाये हैं, जिनमें दण्डक सम्मिलित नहीं हैं । संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश के समस्त प्रकार के छंदों के शास्त्रीय लक्षणों व उदाहरणों के लिये यह रचना एक महाकोष है । छंदःशास्त्र-संस्कृत संस्कृत में अन्य भी अनेक छंद विषयक ग्रन्थ पाये जाते हैं, जैसे नेमि के पुत्र वाग्भट कृत ५ अध्यायात्मक छंदोनुशासन, जिसका उल्लेख काव्यानुशासन में पाया जाता है; जयकीर्ति कृत छंदोनुशासन, जो वि० सं० १९९२ की रचना है । जिनदत्त के शिष्य अमरचन्द्र कृत छंदो- रत्नावली, रत्नमंजूषा अपरनाम छंदोंविचिति के कुल १२ अध्यायों में आठ अध्यायों पर टीका भी मिलती है, आदि इन रचनाओं में भी अपनी कुछ विशेषताएं हैं, तथापि शास्त्रीय दृष्टि से उनके सम्पूर्ण विषय का प्ररूपण पूर्वोक्त ग्रन्थों में समाविष्ट पाया जाता है । १६५ कोष-प्राकृत प्राकृत कोषों में सर्वप्राचीन रचना धनपाल कृत पइयलच्छी- नाममाला है, जो उसकी प्रशस्ति के अनुसार कर्ता ने अपनी कनिष्ठ भगिनी सुन्दरी के लिये धारानगरी में वि० सं० १०२६ में लिखी थी, जबकि मालव नरेन्द्र द्वारा मान्यखेट लूटा गया था । यह घटना अन्य ऐतिहासिक प्रमाणों से भी सिद्ध होती है । धारा नरेश हर्षदेव के एक शिलालेख में उल्लेख है कि उसने राष्ट्रकूट राजा खोटिगदेव की लक्ष्मी का अपहरण किया था। इस कोष में अमरकोष की रीति से प्राकृत पद्यों में लगभग १००० प्राकृत शब्दों के पर्यायवाची शब्द कोई २५० गाथाओं दिये गये हैं । प्रारंभ में कमलासनादि १८ नाम-पर्याय एक-एक गाथा में, फिर लोकाग्र आदि १६७ तक नाम आधी-आधी गाथा में, तत्पश्चात् ५६७ तक एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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