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________________ प्राकृत कोश देशीनाममाला में शब्दों का चयन भी एक विशेष सिद्धान्तानुसार किया गया है । कर्ता ने आदि में कहा है कि जे लक्खणे ण सिद्धा ण पसिद्धा सक्कयाहिहाणेसु । रण य गउडलक्खणासत्तिसंभवा ते इह णिबद्धा ||३|| अर्थात् जो शब्द न तो उनके संस्कृत प्राकृत व्याकरण के नियमों द्वारा सिद्ध होते, न संस्कृत कोषों में मिलते, और न अलंकार - शास्त्र - प्रसिद्ध गौडी लक्षणा शक्ति से अभीष्ट अर्थ देते, उन्हें ही देशी मानकर इस कोष में निबद्ध किया है । इस पर भी यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्या देश देश की नाना भाषाओं में प्रचलित व उक्त श्रेणियों में न आने वाले समस्त शब्दों के संग्रह करने की यहां प्रतिज्ञा की गई है ? इसका उत्तर अगली गाथा में ग्रन्थकार ने दिया है कि देसविसेसपसिद्धीइ भण्णामाणा अणतया हुंति । तम्हा अनाइ - पाइय-पयट्ट-भासाविसेसनो देसी ॥ ४ ॥ १६७ अर्थात् भिन्न-भिन्न देशों में प्रसिद्ध शब्दों के आख्यान में लग जायं, तब तो वे शब्द अनन्त पाये जाते हैं । अतएव यहां केवल उन्हीं शब्दों को देशी मानकर ग्रहण किया गया है जो अनादिकाल से प्रचलित व विशेष रूप से प्राकृत कहलाने वाली भाषा में पाये जाते हैं । इससे कोषकार का देशी से अभिप्राय स्पष्टतः उन शब्दों से है जो प्राकृत साहित्य की भाषा और उसकी बोलियों में प्रचलित हैं, तथापि न तो व्याकरणों से या अलंकार की रीति से सिद्ध होते, और न संस्कृत के कोषों में पाये जाते हैं । इस महान कार्य में उद्यत होने की प्रेरणा उन्हें कहां से मिली, उसका भी कर्ता ने दूसरी गाथा और उसकी स्वोपज्ञ टीका में स्पष्टीकरण कर दिया है । जब उन्होंने उपलभ्य निःशेष देशी शास्त्रों का परिशीलन किया, तब उन्हें ज्ञात हुआ कि कोई शब्द है तो साहित्य का, किन्तु उसका प्रचार में कुछ और ही अर्थ हो रहा है, किसी शब्द में वर्णों का अनुक्रम निश्चित नहीं है; किसी के प्राचीन और वर्तमान देश-प्रचलित अर्थ में विसंवाद (विरोध) है; तथा कहीं गतानुगति से कुछ का कुछ अर्थ होने लगा है । तब आचार्य को यह आकुलता उत्पन्न हुई कि अरे, ऐसे अपभ्रष्ट शब्दों की कीचड़ में फंसे हुए लोगों का किस प्रकार उद्धार किया जाय ? बस, इसी कुतूहलवश वे इस देशी शब्दसंग्रह के कार्य में प्रवृत्त हो गये । देशी शब्दों के सम्बन्ध की इन सीमाओं का कोषकार ने बड़ी सावधानी से पालन किया है; जिसका कुछ अनुमान हमें उनकी स्वयं बनाई हुई टीका के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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