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________________ १६० जैन साहित्य लेखकों द्वारा टीका-टिप्पणी के लिये अवकाश शेष नहीं रहता। फिर भी इसपर मुनिशेखरसूरि कृत लघुवृत्तिढुंठिका, कनकप्रभकृत लघुन्यास पर दुर्गपदव्याख्या, विद्याकरकृत वहन्-वृत्तिदीपिका, घनचन्द्र कृत लघुवृत्ति-अवचूरि, अभयचन्द्र कृत वृहवृत्ति-प्रवचूरि एवं जिनसागर कृत दीपिका आदि कोई दो दर्जन नाना प्रकरणों की टीकायें उपलब्ध हैं, जिनसे इस कृति की रचना के प्रति विद्वानों का आदर व लोकप्रचार और प्रसिद्धि का अनुमान किया जा सकता है। ___ इनके अतिरिक्त और भी अनेक संस्कृत व्याकरण लिखे गये हैं, जैसे मलयगिरि कृत शब्दानुशासन अपर नाम मुष्टिव्याकरण स्वोपज्ञ टीका सहित; दानविजय कृत शब्दभूषण, आदि । किन्तु उनमें पूर्वोक्त ग्रन्थों का ही अनुकरण किया गया है, और कोई रचना या विषय संबंधी मौलिकता नहीं पाई जाती। छंदःशास्त्र-प्राकृत जैन परम्परा में उपलभ्य छंदःशास्त्र विषयक रचनाओं में नन्दिताढ्य कृत गाथा-लक्षण, प्राकृत व्याकरण में चण्डकृत प्राकृत लक्षण के समान, सर्वप्राचीन प्रतीत होता है । ग्रन्थ में कर्ता के नाम के अतिरिक्त समयादि संबंधी कोई सूचना नहीं पाई जाती, और न अभी तक किसी पिछले लेखकों द्वारा उनका नामोल्लेख सम्मुख आया, जिससे उनकी कालावधि का कुछ अनुमान किया जा सके । तथापि कर्ता के नाम, उनकी प्राकृत भाषा, ग्रन्थ के विषय व रचना शैली पर से वे अति प्राचीन अनुमान किये जाते हैं। आरम्भ में गाथा के मात्रा, अंश आदि सामान्य गुणों का विधान किया गया है, जिसमें शर आदि संज्ञाओं का प्रयोग पिंगल, विरहांक आदि छंदःशास्त्रियों से भिन्न पाया जाता है । तत्पश्चात् गाथा के पथ्या, विपुला और चपला, तथा चपला के तीन प्रभेद और फिर उनके उदाहरण दिये गये हैं। फिर एक अन्य प्रकार से वर्गों के हस्वदीर्घत्व के आधार पर गाथा के विप्रा, क्षत्रिया, वैश्या और शूद्रा, ये चार भेद और उनके उदाहरण बतलाये हैं। इसके पश्चात् अक्षर-संख्यानुसार गाथा के छब्बीस भेदों के कमला आदि नाम गिनाकर फिर उनके लक्षण दिये गये हैं, और गाथा के लघुगुरुत्व तौल, प्रस्तार, संख्या, नक्षत्र-ग्रह आदि प्रत्यय बतलाये गये हैं। अन्त में गाथा में मात्राओं की कमी बढ़ी से उत्पन्न होने वाले उसके गाथा, विगाथा, उद्गाथा गाथिनी और स्कंधक, इन प्रभेदों को समझाया गया है। ये प्रथम तीन नाम हेमचन्द्र आदि द्वारा प्रयुक्त उपगीति, उद्गीति और गीति नामों की अपेक्षा अधिक प्राचीन प्रतीत होते हैं । ग्रन्थ का इतना विषय उसका अभिन्न और मौलिक अंश प्रतीत होता है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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