SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 202
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संस्कृत व्याकरण १८६ अपेक्षा बहुत संक्षिप्त है । चौथे महान् जैन वैयाकरण हैं हेमचन्द्र, जिनका शब्दानुशासन अपनी सर्वांग परिपूर्णता व नाना विशेषताओं की दृष्टि से अद्वितीय पाया जाता है। इसकी रचना उन्होंने गुजरात के चालुक्यवंशी राजा सिद्धराज जयसिंह के प्रोत्साहन से की थी; और उसी के उपलक्ष्य में उन्होंने उसका नाम सिद्ध-हैमशब्दानुशासन रखा । सिद्धराज का राज्यकाल वि० सं० ११५१ से ११९९ तक पाया जाता है, और यही इस रचना की कालावधि है। हैम शब्दानुशासन पाणिनि के अष्टाध्यायी के समान ४-४ पादों वाले आठ अध्यायों में लिखा गया है । आठवां अध्याय प्राकृत-व्याकरण विषयक है, जिसका परिचय ऊपर दिया जा चुका है। प्रथम सात अध्यायों में संस्कृत व्याकरण संबंधी ३५६६ सूत्र हैं, जिनमें क्रमशः संज्ञा, संधि, कारक, समास, आख्यात, कृदन्त और तद्धित का प्ररूपण किया गया है। सूत्रों के साथ अपने गणपाठ, धातुपाठ, उणादि और लिंगानुशासन भी जुड़े हुए हैं, जिससे यह व्याकरण पंचांगपूर्ण है । सूत्र-रचना में शाकटायन का विशेष अनुकरण प्रतीत होता है। यों उसपर अपने से पूर्व की प्रायः सभी जैन व अजैन व्याकरणों की कुछ न कुछ छाप है। इस पर कर्ता ने स्वयं छह हजार श्लोक प्रमाण लघुवृत्ति लिखी है, जो प्रारंभिक अध्येताओं के बड़े काम की है; और दूसरी अठारह हजार श्लोकप्रमाण वृहद-वत्ति भी लिखी है; जो विद्वानों के लिये हैं। इसमें अनेक प्राचीन वैयाकरणों के नाम लेकर उनके मतों का विवेचन भी किया है । इन पूर्व वैयाकरणों में देवनन्दि( जैनेन्द्र) शाकटायन व दुर्गसिंह (कातंत्रवृत्तिकार) भी हैं; और यास्क, गार्ग्य, पाणिनि, पतंजलि भत हरि, वामन, जयादित्य, क्षीरस्वामी भोज आदि भी। उदाहरणों में भी बहुत कुछ मौलिकता पाई जाती है। विधि-विधानों में कर्ता ने इसमें अपने काल तक के भाषात्मक विकास का समावेश करने का प्रयत्न किया है, जो ऐतिहासिक दृष्टि से भी बड़ा महत्वपूर्ण है । उणादि सूत्रों पर भी कर्ता का स्वोपज्ञ विवरण है, और लिंगानुशासन की पद्यात्मक रचना पर भी। कर्ता ने स्वयं एक लघु और दूसरा बृहत् न्यास भी लिखे थे, जिनकी भी प्रतियां मिलती है। बृहत्न्यास का प्रमाण नौ हजार श्लोक कहा जाता है । किन्तु वर्तमान में यह केबल भिन्नभिन्न ८-६ पादों पर ३४०० श्लोक प्रमाण मिलता है। यह समस्त व्याकरण सवा लाख श्लोक प्रमाण प्रांका जाता है। बीसों अन्य महाकाय ग्रन्थों के रचयिता की एक इतनी विशाल रचना को देखकर हमारे जैसे सामान्य मनुष्यों की बुद्धि चकित हुए बिना नहीं रहती; और यहीं इस व्याकरण-सामग्री की समाप्ति नहीं होती। हेमचन्द्र ने अपने द्वयाश्वयकाव्य के प्रथम बीस सर्गों में इस व्याकरण के क्रमबद्ध उदाहरण भी उपस्थित किये हैं। ऐसी रचना पर अन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy