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________________ प्राकृत छन्द शास्त्र १६१ जो लगभग ७० गाथाओं में पूरा आ गया है। किन्तु डा० वेलंकर द्वारा सम्पादित पाठ में ६६ गाथाएँ हैं। अधिक गाथाओं में गाथा के कुछ उदाहरण, तथा ७५ वी गाथा से आगे के पद्धडिया आदि अपभ्रंश छंदों के लक्षण और उदाहरण ऐसे हैं जिन्हें विद्वान् सम्पादक ने मूल ग्रन्थ के अंश न मानकर, सकारण पीछे जोड़े गये सिद्ध किया है। किन्तु उन्होंने जिन दो गाथाओं को मौलिक मानकर उन पर कुछ आश्चर्य किया है, उनका यहां विचार करना आवश्यक प्रतीत होता है । ३८ वें पद्य में गाथा के दश भेद गिनाये गये हैं। किन्तु यथार्थ में उपर्युक्त भेद तो नौ ही होते हैं। दसवां मिश्र नाम का भेद वहां बनता ही नहीं है । उसका जो उदाहरण दिया गया है, वह मिश्र का कोई उदाहरण नहीं, और उसे सम्पादक ने ठीक ही प्रक्षिप्त अनुमान किया है। मेरे मतानुसार दस भेदों को गिनाने वाली गाथा भी प्रक्षिप्त ही समझना चाहिये । जब ऊपर नौ भेद लक्षणों और उदाहरणों द्वारा समझाये जा चुके, तब यहां उन्हें पुनः गिनाने की और उनमें भी एक अप्रासंगिक भेद जोड़ देने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। कर्ता की संक्षेप रचना-शैली में उसके लिये कोई अवकाश भी नहीं रह जाता। उक्त भेदों का मिश्र रूप भी कुछ होता ही होगा, इस भ्रान्त धारणा से किसी पाठक ने उसे जोड़ कर ग्रन्थ को पूरा कर देना उचित समझा, और उसका मनचाहा, भले ही अयुक्त, वह उदाहरण दे दिया होगा। गाथा ३१ में कहा गया है कि जैसे वैश्याओं के स्नेह, और कामीजनों के सत्य नहीं होता; वैसे ही नन्दिताढ्य द्वारा उक्त प्राकृत में जिह, किह, तिह, नहीं हैं । स्वयं ग्रन्थकार द्वारा अपने ऊपर ही इस अनुचित उपमा पर डा० वेलंकर ने स्वभावतः आश्चर्य प्रकट किया है, तथापि उसे ग्रन्थ का मौलिक भाग मानकर अनुमान किया है कि ग्रन्थकार जैन यति होता हुआ आगमोक्त गाथा छंद का पक्षपाती था, और अपभ्रंश भाषा व छंदों की ओर तिरस्कार दृष्टि रखता था। किन्तु मेरा अनुमान है कि यह गाथा भी ग्रन्थ का मूलांश नहीं, और वह अपभ्रश का तिरस्कार करने वाले द्वारा नहीं, किन्तु उसके किसी विशेष पक्षपाती द्वारा जोड़ी गई है, जिसे अपने काल के लोकप्रिय और वास्तविक अपभ्रंश रूपों का इस रचना में अभाव खटका, और उसने कर्ता पर यह व्यंग मार दिया कि उनका प्राकत एक वेश्या व कामुक के सदश उक्त प्रयोगों की प्रियता और सत्यता से हीन पाया जाता है । इस प्रकार उक्त पद्य का अनौचित्य दोष पुष्टार्थता गुण में परिवर्तित हो जाता है, और ग्रन्थकर्ता अपभ्रंश के मति अनुचित और अप्रासंगिक विद्वेष के अपराध से बच जाते हैं। इस ग्रन्थ की दो टीकाएँ मिली हैं, एक रत्नचन्द्रकृत और दूसरी अज्ञातकर्तृक अवचूरि । इन दोनों में समस्त प्रक्षिप्त अनुमान की जाने वाली गाथाएं स्वीकार की गई हैं, जिससे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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