________________
प्राकृत व्याकरण
१८५
समकालीन, अतएव ५ वीं-६ वीं शती में हुए सिद्ध होते हैं । यह व्याकरण पांच अध्यायों में विभक्त है, और इस कारण पंचाध्यायी भी कहलाता है। इसमें एकशेष प्रकरण न होने के कारण, कुछ लेखकों ने उसका अनेकशेष व्याकरण नाम से भी उल्लेख किया है । पूज्यपादकृत सर्वार्थसिद्धि, अकलंककृत तत्वार्थराजवातिक और विद्यानन्दि-कृत श्लोकवार्तिक में इस व्याकरण के सूत्र उल्लिखित पाये जाते हैं। प्रत्येक अध्याय चार पादों में विभक्त है, जिनमें कुल मिलाकर ३००० सूत्र पाये जाते हैं । इसकी रचनाशैली और विषयक्रम पाणिनि की अष्टाध्यायी व्याकरण के ही समान है । जिस प्रकार पाणिनि के पूर्वत्रासिद्धम् सूत्र द्वारा अपने व्याकरण को सपाद-सप्ताध्यायी और त्रिपादी, इन दो भागों में विभक्त किया है, उसी प्रकार उसी सूत्र (५-३-२७) के द्वारा यह व्याकरण भी साधद्विपाद-चतुराध्यायी और सार्धेकपादी में विभाजित पाई जाती है। तथापि इस व्याकरण में अपनी भी अनेक विशेषताएं हैं। इसमें वैदिकी और स्वर प्रक्रिया इन दो प्रकरणों को छोड़ दिया गया है। परन्तु पाणिनि के सूत्रों में जो अपूर्णता थी, और जिसकी पूर्ति काव्यायन व पतंजलि ने वार्तिकों व भाष्य द्वारा की थी उसकी यहां सूत्रपाठ में पति कर दी गई है । अनेक संज्ञाएं भी नयी प्रविष्ट की गई है; जैसे पाणिनीय व्याकरण की प्रथमा, द्वितीया आदि कारकविभक्तियों के लिये यहां वा, इप् प्रादि; निष्ठा के लिये त, आमनेपद के लिये द, प्रगृह्य के लिये दि, उत्तरपद के लिये द्य आदि एक ध्वन्यात्मक नाम नियत किये गये हैं । इन बीजाक्षरों द्वारा सूत्रों में अल्पाक्षरता तो अवश्य आ गई है, किन्तु साथ ही उनके समझने में कठिनाई भी बढ़ गई है।
जैनेन्द्र व्याकरण पर स्वभावतः बहुत सा टीका-साहित्य रचा गया। श्रुतकीति कृत पंचवस्तु-प्रक्रिया (१३ वीं शती) के अनुसार यह व्याकरण रूपी प्रासाद सूत्ररूपी स्तंभों पर खड़ा है; न्यास इसकी रत्नमय भूमि है; वृत्ति रूप उसके कपाट हैं; भाष्य इसका शय्यातल हैं; और टीकायें इसके माले (मंजिलें) हैं; जिनपर चढ़ने के लिये यह पंचवस्तुक रूपी सोपान-पथ निर्मित किया जाता है । पंचवस्तु-प्रक्रिया के अतिरिक्त इस व्याकरण पर अभयनन्दि कृत महावृत्ति ( ८ वीं शती), प्रभचन्द कृत शद्वाम्भोजभास्कर न्यास (११ वीं शती), और नेमिचन्द्र कृत प्राक्रियावतार पाये जाते हैं। इनके अतिरिक्त और कोई टीका-ग्रंथ इस पर नहीं मिलते, किन्तु भाष्य और प्राचीन टीकाएं होना अवश्य चाहिये । महाचन्द्रकृत लघुजनेन्द्र, वंशीधर कृत जैनेन्द्र-प्रक्रिया व पं० राजकुमार कृत जैनेन्द्रलघुवृत्ति हाल ही की कृतियां हैं । उपलभ्य टीकाओं में प्रभयनन्दि कृत महावृत्ति बारह हजार श्लोक-प्रमाण हैं, और बहुत महत्वपूर्ण हैं, उसमें अनेक नये उदाहरण पाये जाते हैं जो ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण हैं। इनमें शालि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org