SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 197
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८४ जैन साहित्य लक्षणों को बड़ी विशदता से उदाहरण दे-देकर समझाया है। आदि के प्रस्ताविक सूत्र अथप्राकृतम की वृत्ति विशेष महत्वपूर्ण है । इसमें ग्रन्थकार ने प्राकृत शब्द की व्युत्पत्ति यह दी है कि प्रकृति संस्कृत है, और उससे उत्पन्न व आगत प्राकृत । स्पष्टतः यहां उनका अभिप्राय यह है कि प्राकृत शब्दों का अनुशासन संस्कृत के रूपों को आदर्श मानकर किया गया है। उन्होंने यहां प्राकृत के तत्सम, तद्भव व देशी, इन तीन प्रकार के शब्दों को भी सूचित किया है, और उसमें से संस्कृत और देश्य को छोड़कर तद्भव शब्दों की सिद्धि इस व्याकरण के द्वारा बतलाने की प्रतिज्ञा की है। उन्होंने तृतीय सूत्र में व अन्य अनेक सूत्रों की वृत्ति में आर्ष प्राकृत का उल्लेख किया है और उसके उदाहरण भी दिये हैं । आर्ष से उनका अभिप्राय उस अर्द्धमागधी प्राकृत से है, जिसमें जैन आगम लिखे गये हैं। हेमचन्द्र से पूर्वकालीन चंडकृत प्राकृत-लक्षण और वररुचि कृत प्राककृतप्रकाश नामक व्याकरणों से हेमव्याकरण का मिलान करने पर दोनों की रचनाशैली व विषयक्रम प्रायः एकसा ही पाया जाता है । तथापि 'हैम' व्याकरण में प्रायः सभी प्रक्रियाएं अधिक विस्तार से बतलाई गई हैं, और उनमें अनेक नई विधियों का समावेश किया गया है, जो स्वाभाविक है; क्योंकि हेमचन्द्र के सम्मुख वररुचि की अपेक्षा लगभग पांच-छह शतियों का भाषात्मक विकास और साहित्य उपस्थित था, जिसका उन्होंने पूरा उपयोग किया है। चूलिकापैशाची और अपभ्रंश का उल्लेख वररुचि ने नहीं किया। हेमचन्द्र ने इन प्राकृतों के भी लक्षण बतलाये हैं, तथा अपभ्रंश भाषा का निरूपण अन्तिम ११८ सूत्रों में बड़े विस्तार से किया है; और इससे भी बड़ी विशेषता यह है कि इन नियमों के उदाहरणों में उन्होंने अपभ्रंश के पूरे पद्य उद्धृत किये हैं, जिनसे उस काल तक के अपभ्रंश साहित्य का भी अनुमान किया जा सकता है। हेमचन्द के पश्चात् त्रिविक्रम, श्रुतसागर और शुभचन्द द्वारा लिखित प्राकृत व्याकरण पाये जाते हैं । किन्तु यह सब रचना, शैली व विषय की अपेक्षा हेमचन्द्र से आगे नहीं बढ़ सके । अपभ्रंश का निरूपण तो उतनी पूर्णता से कोई भी नहीं कर पाया। हां, उदाहरणों की अपेक्षा त्रिविक्रम कृत व्याकरण में कुछ मौलिकता पाई जाती है। व्याकरण-संस्कत-- जैन साहित्य में उपलभ्य संस्कृत व्याकरणों में सबसे अधिक प्राचीन जैन्द्र व्याकरण है, जिसके कर्ता देवनन्दि पूज्यपाद कदम्बवंशी राजा दुविनीत के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy